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प्रवचन- ८७
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समझ में नहीं आता है आजकल जितनी प्रेरणा, जिनता उपदेश, विशेष धर्मआराधना या अनुष्ठानों के लिए दिया जाता है... उतनी प्रेरणा या उतना उपदेश सामान्य धर्म जो कि बुनियाद है, उसके लिए क्यों नहीं दिया जाता है?
● ज्ञानशून्य क्रियाजड़ लोग अभिमान के पुतले बने फिरते हैं, वे अपने आपको शायद सर्वज्ञ या सर्वज्ञ के समकक्ष ही मानते हैं। ये लोग धर्म को, परमात्मा के शासन को बड़ा नुकसान करते हैं।
● संतों का संग, सुज्ञपुरुषों का सत्संग तो अमृत है अमृत ! जब भी मन व्याकुल बने... चित्त आर्त्तध्यान को अंधेरी गलियों में भटकने लगे... अविलंब संत पुरुषों के पास चले जाना... अपनी विपदाओं को भुलाकर !
● चिंतन यदि पूर्वग्रहबद्धता से मुक्त है तो हो वह सार्थक है। समझदारी के दीये में ज्ञान का घी डालकर चिंतन को ज्योत जलानी है... यह दीया सदा जलता रहना चाहिए।
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परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर, आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी ने स्वरचित ‘धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के पहले ही अध्याय में गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन किया है। ये सामान्य धर्म, गृहस्थ जीवन की एक ऐसी सुन्दर आचारसंहिता और विचारसंहिता बन सकते हैं कि जिसकी मिसाल दुनिया में अन्यत्र नहीं मिल सकती है।
सामान्य धर्म की उपेक्षा हो रही है :
परन्तु, धर्माचार्यों का एवं धर्मोपदेशकों का जितना ध्यान विशेष धर्मों के प्रति है उतना ध्यान इन सामान्य धर्मों के प्रति नहीं गया है । जितना उपदेश दानधर्म के लिए दिया जाता है, उतना उपदेश न्याय-नीति से अर्थोपार्जन करने के लिए दिया जाता है क्या ? जितना उपदेश शील- सदाचार और ब्रह्मचर्य के लिए दिया जाता है उतना जोर-शोर से उपदेश उचित विवाह के विषय में दिया जाता है क्या ? जितना उपदेश मंदिरों के निर्माण के लिए दिया