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प्रवचन- ८६
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तब उस अच्छे कार्य की कटु आलोचना कर देता है । आलोचना कर के वह अपने आपको कुछ महत्त्वपूर्ण व्यक्ति समझने लगता है। यह बहुत बुरी आदत है। इससे पापकर्मों का बंधन तो होता ही है, समाज में अच्छे कार्यों के प्रति लोकचाहना कम होती है। ज्यादातर वे लोग ही अच्छे कार्यों की, धर्मकार्यों की निन्दा करते हैं या कटु आलोचना करते हैं, जो स्वयं अच्छे कार्य नहीं करते हैं, अथवा जो ईर्ष्या से जलते होते हैं।
अनुमोदना भी बड़ा धर्म है :
जिस धर्म की आराधना आप नहीं करते हैं, आपका ८/१० साल का बच्चा कर रहा है, आप उसकी प्रशंसा करते रहें। आप देखना, उसका उत्साह बढ़ता रहेगा और धर्म के प्रति लगाव भी बढ़ता रहेगा । वह भी दूसरों के धर्मकार्यों की प्रशंसा करना सीखेगा । शत्रु के भी धर्मकार्यों की प्रशंसा करनी चाहिए। परन्तु वह प्रशंसा प्रसंगोचित होनी चाहिए । सुयोग्य व्यक्ति के सामने करनी चाहिए। जो दूसरों की प्रशंसा सुनकर खुश होते हो उनके सामने प्रशंसा करनी चाहिए। प्रशंसा करने में कृपण नहीं बनना चाहिए ।
जिनागमों का, धर्मग्रंथों का श्रवण - मनन करते करते सूक्ष्म तत्त्वों का बोध प्राप्त करना चाहिए। जिन्होंने धर्मग्रंथों का अध्ययन - चिंतन-मनन कर के सूक्ष्मसूक्ष्मतर तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त किया हो, वैसे गुरुदेवों का सान्निध्य प्राप्त करना चाहिए और उनसे वैसा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
यह कार्य सभी लोग नहीं कर सकते हैं, यह स्वाभाविक है । सभी लोग गहन तत्त्वचिंतन नहीं कर सकते, परन्तु जो बुद्धिमान् है, जिसको श्रुतसागर में गोता लगानना है और ज्ञानानन्द का अनुभव करना है, उसको तो अगमअगोचर तत्त्वों को पाने का प्रयत्न करना ही चाहिए । ज्ञानी गुरुदेव से शंकाओं का समाधान भी करना चाहिए। शंकाओं का समाधान होने पर तत्त्वनिर्णय हो सकता है। तत्त्वनिर्णय करना बुद्धिमान् लोगों के लिए बहुत आवश्यक है । तत्त्वों के निर्णयों का स्मृति में संग्रह कर लेना चाहिए। वे निर्णय विस्मृत नहीं होने चाहिए।
यह सब गृहस्थ जीवन में भी संभव है :
सभा में से : क्या हमारे गृहस्थ जीवन में यह संभव हो सकता है? महाराजश्री : क्यों नहीं? असंभव जैसी बात लगती है क्या ? जहाँ अभिरुचि
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