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प्रवचन-८६ से इस प्रकार गंभीर बने रहे होंगे। परन्तु दूसरे दिन भी वैसी ही स्थितप्रज्ञता बनी रही! तीसरे-चौथे दिन भी वही स्थिति! मैंने उनकी स्थितप्रज्ञता को तोड़ने का भरसक प्रयत्न किया... परन्तु असफल रहा।
सभा में से : स्थितप्रज्ञता तो अच्छी मानी जाती है न?
महाराजश्री : मूढ़ता कहूँ तो बुरा लगे न? इसलिए 'स्थितप्रज्ञता' शब्द का प्रयोग किया। प्रवचन सुनते समय मुँह पर विषयानुरूप भाव-परिवर्तन होना ही चाहिए । हँसने की बात आये तब हँसना चाहिए, करुण रस की बात आये तब मुँह पर दया-करुणा उभरनी चाहिए, वैराग्य की बात चलती हो तब मुँह पर विरक्ति का भाव छलकना चाहिए। ___ यदि धर्मतत्त्वों को सुनने की तत्परता होगी तो भाव-परिवर्तन आये बिना नहीं रहेगा। जिस विषय में सरसता होती है, तत्परता होती है, वहाँ भावपरिवर्तन आता ही है। और जब आप श्रवण में रसलीन बनते हो तब मौन स्तवः आ जाता है। दूसरी बातें करने की इच्छा ही नहीं होती है। ___ सभा में से : दूर बैठे हुए लोगों को सुनाई नहीं देता है, तब वे लोग बातें करने लगते हैं - ऐसा नहीं है? एकाग्रता एवं मौन जरूरी है :
महाराजश्री : बात सही है, परन्तु नहीं सुनाई देता हो तो चले जाना चाहिए न? बातें करने से दूसरों को भी सुनने में बाधा पहुँचती है। यह तो जिनवाणी है, जिनेश्वर भगवन्तों के वचन हैं, बराबर नहीं सुनोगे तो अर्थ का अनर्थ करोगे। किस दृष्टि से बात कही जाती है, उस दृष्टि को समझना चाहिए. वह तब ही समझ पाओगे, जब शान्ति से एवं एकाग्रता से सुनोगे।
जो बात सुनते हो, उस बात पर चिन्तन-मनन करना चाहिए। जिनागमों की बातें चिन्तन-मनन से ही ज्यादा स्पष्ट होती है। आपके हृदय में जिनागमों के प्रति, सर्वज्ञभाषित धर्मग्रन्थों के प्रति दृढ़ श्रद्धा होनी चाहिए। जिनागमों के तत्त्व सुनने की तत्परता होनी चाहिए। वह सुनने में खेद-उद्वेग नहीं आना चाहिए। आजकल ज्यादातर लोगों को तत्त्वज्ञान की बातों में रस नहीं है। चूँकि वे तत्त्वज्ञान समझने का परिश्रम करना नहीं चाहते। 'हमें तो इन तत्त्वज्ञान की बातों में कोई रुचि नहीं है, हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता है... हम तो भूल जाते हैं....।' ऐसी-ऐसी बातें करते हैं।
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