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प्रवचन-८५
__१२९ धर्मोपदेशक - १. वचनशक्तिवाला
४. अवसर का ज्ञाता २. विस्तार एवं संक्षेप का ज्ञाता ५. सत्यवादी ३. प्रियभाषी
६. संदेहों को दूर करनेवाला ७. सभी धर्मग्रंथों का ज्ञाता १०. लोकरंजन करनेवाला ८. वस्तु का पर्याप्त और आवश्यक ११. सभी को वश करनेवाला ___ वर्णन करने में कुशल १२. अहंकाररहित ९. व्यंग्य नहीं करनेवाला १३. धर्मपालन करनेवाला
१४. संतोषी... १. वक्ता को भाषा का ज्ञान तो होना ही चाहिए। जिस देश में जिस प्रजा के सामने जिनवचनों का व्याख्यान करना हो, उस प्रजा की भाषा में करना चाहिए। उस भाषा का अच्छा ज्ञान होना चाहिए।
२. दूसरी बात भी समझने की है। जिन वचन का कहाँ और किसके आगे विस्तार करना चाहिए और कहाँ एवं किसके आगे संक्षेप में व्याख्या करनी चाहिए - धर्मोपदेशक को इस बात का ज्ञान होना चाहिए | जहाँ संक्षेप करना हो वहाँ विस्तार करता रहे और जहाँ विस्तार करने का हो वहाँ संक्षेप करता रहे... तो उसका उपदेश श्रोताओं को प्रिय नहीं लगेगा। चूंकि विद्वान् लोग संक्षेप में सुनना पसंद करते हैं, जब कि सामान्य बुद्धिवाले लोग विस्तार से विषय को सुनना पसंद करते हैं। दूसरी बात-कोई विषय ऐसा होता है कि जिसकी व्याख्या संक्षेप में कर के छोड़ देना चाहिए। जैसे, कोई वर्तमानकालीन सामाजिक या राजकीय घटना... परिस्थिति की समालोचना करनी है, तो वह संक्षेप में करनी चाहिए, विस्तार से करने पर मूलभूत विषय का विवेचन नहीं हो पाता है... 'विषयान्तर' प्रवचन का बड़ा दोष है। वैसे कोई मानवीय गुणों का अथवा कोई शास्त्रीय गंभीर विषय का विवेचन विस्तार से करना चाहिए। वक्ता को स्वयं सूझ होनी चाहिए संक्षेप एवं विस्तार की।
३. धर्मोपदेशक प्रियभाषी होना चाहिए। यों तो सभी को प्रियभाषी बनना चाहिए, परन्तु धर्मोपदेश के लिए तो प्रियभाषी होना अति आवश्यक है। चूंकि उनका कर्तव्य तो दूसरों के हृदय में धर्मतत्त्व को पहुंचाने का है। मिथ्या विचारों को बदलना है। वह कार्य कटु शब्दों से नहीं होगा। मधुर शब्दों से होगा। वक्ता का भाषा पर कितना भी प्रभुत्व होगा और शास्त्रों का ज्ञान
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