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प्रवचन-८६
१३४ हुए। भाषण बहुत ही अच्छा चल रहा था। पसीना भी उतना ही जोरों से हो रहा था । पसीना पौंछने के लिए उन्होंने जेब में से रूमाल निकाला.... परन्तु रूमाल के साथ जेब में से अंडा भी बाहर निकल पड़ा....! स्टेज पर अंडा गिरने की आवाज भी आयी। महाराजा सयाजीराव हँस पड़े... और बीच में ही खड़े होकर अंडा हाथ में लेकर बोले.... आजकल लोग शारीरिक ताकत पाने के लिए ऐसे अंडे खाते हैं, यह बताने के लिए ये महानुभाव बम्बई से अपने साथ यह अंडा लेकर आये हैं।'
स्वयं अंडा खाने वाले दूसरों को जीवदया का उपदेश क्या देंगे? स्वयं क्रोधी, दूसरों को क्षमा का उपदेश कैसे देंगे? स्वयं रागी-द्वेषी हो, दूसरों को राग-द्वेष मिटाने का उपदेश क्या देंगे? स्वयं विषयासक्त मनुष्य दूसरों को वैराग्य का उपदेश कैसे देंगे? इसलिए, यह तेरहवीं बात बड़ी महत्त्वपूर्ण कही गई है। धर्मोपदेशक का जीवन धर्ममय होना चाहिए।
१४. चौदहवाँ गण बताया गया है संतोष का | धर्मोपदेशक संतोषी होना चाहिए। लोभी नहीं होना चाहिए। निष्काम भावना से धर्मोपदेश देना चाहिए | संसार के भौतिक पदार्थों की आशा-तृष्णा नहीं रखनी चाहिए। 'मैं अच्छा प्रवचन दूंगा... तो लोग मेरे भक्त बनेंगे..... और मुझे उत्तम वस्त्र देंगे, पात्र देंगे, मेरे उपदेश से लाखों रुपये खर्च करेंगे....' वगैरह आशाएँ नहीं रखने की है। 'इतने रुपये दो, तो ही मैं प्रवचन देने आऊँगा.....' ऐसी शर्ते भी नहीं रखनी चाहिए।
प्रतिदिन धर्मश्रवण करने का, गृहस्थ का सामान्य धर्म मुझे समझाना है, परन्तु किस व्यक्ति से धर्मश्रवण करना चाहिए, यह बात पहले समझनी चाहिए। इस दृष्टि से मैंने आज धर्मोपदेशक कैसा होना चाहिए, यह बात बतायी है। २५-३० वर्ष पूर्व जितने धर्मोपदेशक थे, आज बहुत बढ़ गये हैं। साधु-साध्वी की संख्या बढ़ी है.... व्याख्याताओं की संख्या भी बढ़ी है... परन्तु योग्यताप्राप्त व्याख्याता कितने? जिनवचनों की प्रामाणिकता से व्याख्या करनेवाले कितने? आज वक्ता के विषय में बताया, कल श्रोता के विषय में बताऊँगा.... और बाद में धर्मश्रवण के विषय में बताना चाहता हूँ।
आज बस, इतना ही।
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