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प्रवचन-७९ लिए पब्लिक में सराहते हैं...उनकी झूठी प्रशंसा करते हैं, बस, इतना ही। बाद में, प्रशंसा करनेवाले लोग ही निन्दा करते रहते हैं।
गलत रास्तों पर चल कर धनवान बनने की स्पृहा छोड़ सकेंगे? मन का दृढ़ संकल्प करें और ऐसी वितृष्णा से मुक्त बनें। आजीविका के लिए धनार्जन तो करना ही पड़ेगा, परन्तु श्रीमन्त बनने की स्पृहा से यदि धनान्ध बन कर धनोपार्जन में लग गये तो धर्म-आराधना तो दूर रहेगी ही, संसार के सुख भी नहीं भोग सकोगे। सोचिए, आप कहाँ जा रहे हैं? :
एक महानुभाव ने अपने विगत जीवन की भूलों की आलोचना करते हुए बताया था कि 'मैं मेरे यौवनकाल में धन कमाने के लिए दिन-रात मेहनत करता था। मेरे पास आजीविका के लिए तो पर्याप्त धन था, परन्तु मुझे तो करोड़पति बनना था । मेरी बंबई में, मद्रास में और अहमदाबाद में ऑफिसें थीं। महीने में २० दिन मैं प्रवास में ही रहता था। पत्नी मेरे बंबई के घर में रहती थी। पत्नी मुझे हमेशा कहा करती थी कि 'आप ज्यादा प्रवास मत करें। आपके बिना मुझे बेचैनी रहती है। परन्तु मैं उसकी बात ध्यान में नहीं लेता था। वह मुझे से वैषयिक सुख नहीं पा सकती थी। विषयव्याकुलता बढ़ती गई। एक दूसरे पुरुष से उसका शारीरिक संबंध हो गया। मैं तो नाम का ही पति बना रहा...। कुछ वर्ष तक यह परिस्थिति बनी रही। मैं तो अपने व्यापार में ही उलझा हुआ रहता था। घर में पत्नी को जितने रुपये चाहिए, दे देता था। मैंने कभी यह नहीं सोचा कि 'पत्नी की मानसिक स्थिति क्या होगी। क्या उसके मन में विषयभोग की इच्छा नहीं जगती होगी? जगती होगी तो वह क्या करती होगी? मैं तो ज्यादातर घर से बाहर ही रहता हूँ।' ।
परन्तु एक दिन मैं अचानक घर पर पहुँचा...और मैंने अपने घर में उस पुरुष के साथ मेरी पत्नी को देखा। वह पुरुष तो चला गया। मैं मौन रहा। मेरी पत्नी भी मौन रही। भोजन से निवृत्त होकर मैं बैठा था, रात पड़ गई थी। मेरी पत्नी मेरे पास आकर बैठ गई...मेरे पैरों में गिरकर रोने लगी। उसने परपुरुष के साथ बँधा हुआ संबंध कबूल किया...और अब फिर से गलती नहीं करने का वचन देने लगी। मैं गहन विचार में डूब गया था। मैंने उससे कहा : 'पहले मेरी गलती हुई है, मेरी गलती के कारण तेरी गलती हुई है। मैं ज्यादा धन कमाने की लालच में तुझे भूल ही गया...। मैं तो अति व्यस्तता में भोगसुख को भूल ही गया था...तुझे विषयवासना उतनी सताती नहीं थी...परन्तु
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