________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७०
प्रवचन-७९ धर्मपुरुषार्थ को भी स्थान दिया । धर्म-अर्थ और काम, तीनों पुरुषार्थ को जीवन में यथोचित स्थान दिया।
सभा में से : कभी भविष्य की चिन्ता सताती है, इसलिए अर्थ-पुरुषार्थ को विशेष महत्त्व देते हैं। __ महाराजश्री : भविष्य की चिन्ता सताती होती तो आप धर्म-पुरुषार्थ को विशेष महत्त्व देते। आप लोगों को आपके भविष्य की चिन्ता होती है क्या? आपके वर्तमान जीवन के कृत्यों से आपका कैसा भविष्य निर्मित होगा, इस बात को सोचते हो क्या? लेकिन, आपको आत्मचिन्ता नहीं है! आपको पेट की चिन्ता है...'भविष्य में मेरे पास पैसे नहीं होंगे तो मेरा क्या होगा? मेरे बेटों का क्या होगा? बेटे के बेटों का क्या होगा? मैं इतने रुपये कमा लूँ कि मेरे बेटोंपोतों को भी कमाना नहीं पड़े ।' चिंता कहाँ तक की? :
ऐसी ही चिन्ता जटाशंकर को हुई थी। उसने मंदिर, धर्मस्थान सब कुछ छोड़कर अर्थपुरुषार्थ करना शुरू कर दिया था | कुटुम्ब-परिवार की ओर भी देखता नहीं था। रात-दिन बस, पैसा कमाने की ही धुन लग गई थी। ढेर सारे रुपये कमाये भी थे। एक दिन उसने अपने मुनीम को कहा : 'मुनीमजी, आप मेरी संपत्ति का हिसाब लगायें कि, मेरी संपत्ति कब तक चलेगी। यानी मेरी कितनी पीढ़ी तक चलेगी?' ____ मुनीम ने हिसाब लगाकर कहा : 'सेठ साहब, आपके पास इतनी संपत्ति है कि आपका पुत्र अपने १०० साल की आयु तक बैठा हुआ खायेगा, तो भी चलेगी।'
जटाशंकर ने पूछा : 'क्या मेरे पोते के लिए मेरी संपत्ति नहीं बचेगी?' मुनीम ने कहा : 'नहीं।'
बस, जटाशंकर को चिन्ता लग गई और 'चिन्ता तो चिता के समान।' जटाशंकर का शरीर भी चिन्ता से गलने लगा। एक दिन एक संन्यासी उसके घर भिक्षा लेने आया । भिक्षा देने के बाद जटाशंकर ने कहा : 'महात्मन्, मुझे भविष्य की बहुत चिन्ता सताती है... ढेर सारी संपत्ति होने पर भी शान्ति नहीं है।'
संन्यासी ने कहा : 'तू प्रतिदिन एक भिक्षुक को एक सेर अनाज देने के बाद भोजन करना ।' संन्यासी चला गया। जटाशंकर प्रतिदिन भोजन से पहले
For Private And Personal Use Only