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प्रवचन-८४
१२२ समय को समझ कर किया हुआ विशेष धर्म, महान् फल देने वाला बन जाता है। जैसे-आप लोग श्रावक हैं, साधुपुरुषों की सेवा करते हो । प्रतिदिन उपाश्रय में आकर प्रतिक्रमण करने के बाद साधुपुरुषों की सेवा करके घर जाते हैं। कोई साधु बीमार हो तो अवश्य वे सेवा करेंगे। सेवा भी समयोचित होनी चाहिए :
'आर्य सुहस्ति' नाम के महान आचार्यदेव ने एक भिक्षुक को दीक्षा दी थी न? प्रसंग मैंने आपको कहा हुआ है, इसलिए पुनः वह कहानी नहीं कहता हूँ, परन्तु जब, वह साधु रात्रि के समय बीमार हो गया...प्रतिक्रमण की क्रिया पूर्ण होने के बाद श्रावकों ने उस साधु की सेवा की। उस साधु की उन्होंने सेवा की कि जो एक दिन पहले भिखारी था और उन श्रावकों के घर भिक्षा लेने जाता था।
'अरे, यह तो वह भिखारी साधु बन गया है... पेट भरने के लिए साधु बन गया... खाया होगा ज्यादा... बीमार नहीं हो तो क्या हो? मरने दो... अपन तो चलते हैं घर...।' ऐसा समझकर यदि वे लोग अपने-अपने घर चले जाते तो क्या उस साधु के मन में जो भाव-शुभ भाव जगे थे, वे जगते क्या? उस साधु ने क्या सोचा था, सुना है न? फिर से सुन लो।
'अरे, ये लोग मेरे पैर दबा रहे हैं? ये तो बहुत बड़े सेठ लोग हैं... बड़ी बड़ी हवेली वाले हैं... ये मेरी सेवा करते हैं? अहो...! यह प्रभाव इस साधुवेष का है। अरे, मैं तो मात्र पेट भरने के लिए साधु बना हूँ, फिर भी मेरी कैसी सेवा हो रही है? और इतने बड़े आचार्यदेव... मेरा सर अपने उत्संग में लेकर मुझे नवकार मंत्र सुना रहे हैं... कैसा मेरा सद्भाग्य? यदि मैं सच्चे भाव से... आत्मा का कल्याण करने की भावना से साधु बनता तो...?' उसके मन में साधुता के प्रति आदरभाव पैदा हो गया। साधुवेष से आन्तरिक प्रीति बँध गई।
यह थी श्रावकों की समयोचित सेवा | यह थी आचार्यदेव की समयोचित निर्यामणा । वह साधु समाधि-मृत्यु पाकर सम्राट सम्प्रति बना। जिनशासन की अपूर्व प्रभावना करनेवाला बना। समयोचित सेवा करने का कैसा अद्भुत परिणाम आया?
समयोचित सेवा, समयोचित अर्थव्यय, समयोचित कार्य करना... मात्र साधनों की उपलब्धि से संभव नहीं होता है। विवेकबुद्धि से होता है । ग्रन्थकार आचार्यदेव ने 'कालोचित अपेक्षा' का यह गुण महत्त्वपूर्ण बताया है। वैभव का, संपत्ति का उचित व्यय करना और उचित रक्षा करना - यह बात वे समझाते हैं।
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