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प्रवचन-८३
१०६ ० हर जीवात्मा का अपना अलग संसार हुआ करता है। वह र उसी में जीता है...रहता है...मनुष्य यदि चाहे तो उस संसार
को अपनी समझदारी से सुंदर बना सकता है। ० बाह्य व्यक्तित्व को विकसाने के साथ साथ भीतरी व्यक्तित्व
का भी विकास करना होगा! ० अपनी ही दृष्टि अपनी सृष्टि का सर्जन करती है! दृष्टि यदि
सम्यक है...सही है तो सृष्टि भी सुंदर और पवित्र बनेगी! ० गृहस्थ जीवन को गौरवशाली बनाने के लिए धर्म-अर्थ और
काम को वृद्धिगत बनाये रखो! गृहस्थ जीवन भी गौरवभरा
होना जरूरी है! ० यदि कुछ बनना है तो इधर-उधर की परवाह करना छोड़ो! 'लोग क्या कहेंगे?' की बजाय आत्मा क्या सोच रही है वह देखो!
र प्रवचन : ८३ र
परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हुए अट्ठाइसवाँ सामान्य धर्म बताते हैं : धर्म-अर्थ और काम की उत्तरोत्तर वृद्धि करने का प्रयत्न करना। अपना-अपना संसार है!
हर जीवात्मा का अपना बनाया हुआ संसार है। वह उसी में निवास करता है और निर्वाह करता है। मकड़ी अपना जाला बुनती है, रेशम के कीड़े अपने रेसे बनाते हैं। गोबर का कीड़ा अपने लिए गोबर तलाश करता है और उसी में अपने ढंग की जिन्दगी जीता है। तितलियों की और भौरों की बिरादरी, अपनी रुचि की पुष्प-वाटिकाएँ सरलता से खोज निकालती है। इन जीवों को धर्म-अर्थ और कामपुरुषार्थ से कोई प्रयोजन नहीं होता है...वे अपने ढंग से जीवन जीते हैं। तीनों पुरुषार्थ से प्रयोजन होता है, मनुष्य को | अपनी सूझबूझ के अनुसार मनुष्य अपना निर्माण करता है। बाह्य व्यक्तित्व का और आन्तर व्यक्तित्व का निर्माण करता है।
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