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प्रवचन-८३
११५ एक बात याद रखो कि शरीर का कोई एक अंग क्षतिग्रस्त हो जाने से मनुष्य बेकार नहीं हो जाता है। यदि वह दृढ़ मनोबलवाला हो तो वह जो सोचेगा वह कर सकता है। 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के टीकाकार आचार्यश्री ने लिखा है :
'अनुबन्धशून्यानि हि प्रयोजनानि वन्ध्याः स्त्रिय
इव न किंचिद् गौरवं लभंते, अपि तु हीलामेव ।' "जैसे वंध्या स्त्री संसार में गौरवपात्र नहीं बनती है, वैसे धर्म-अर्थ-काम के प्रयोजन उत्तरोत्तर वृद्धिरूप नहीं होते हैं तो मनुष्य गौरव प्राप्त नहीं करता है, परन्तु अपमान ही प्राप्त करता है।' ____ महान् श्रुतधर आचार्यश्री गृहस्थ जीवन गौरवपूर्वक जीने का निर्देश करते हैं। ज्ञानी पुरुष के इस कथन की गंभीरता समझनी चाहिए |
जिस समय पेथड़शाह, आचार्यश्री धर्मघोषसूरिजी के पास परिग्रह-परिमाण व्रत लेने गये और अति अल्प परिग्रह का परिमाण करने की इच्छा व्यक्त की तब गुरुदेव ने उसके शारीरिक लक्षण देखकर अल्प परिमाण का निषेध कर, लाखों रुपयों का परिग्रह-परिमाण कराया। सुयोग्य व्यक्ति के पास अधिक संपत्ति आने से वह महान् धर्मकार्य कर सकता है। वह स्वयं का गौरव तो बढ़ाता ही है, धर्मशासन का गौरव भी बढ़ाता है। जीवन की ऊँचाइयाँ बनाये रखें :
मनुष्य के पास संपत्ति हो, सद्गुरु का मार्गदर्शन हो, बुद्धि निर्मल हो, मनोबल दृढ़ हो और हिम्मत से छलकता हो...तो वह मनुष्य महान् सत्कार्यों से दुनिया को चकित कर देता है। अपनी आत्मा को भी पुण्यानुबंधी पुण्य से भर देता है। संघसमाज में और राष्ट्र में वह आदरणीय बनता है, अनुकरणीय बनता है।
सभा में से : अर्थ-काम की वृद्धि पुण्यकर्म के उदय से होती है न? महाराजश्री : पुण्यकर्म का उदय उचित पुरुषार्थ की अपेक्षा रखता है। पुरुषार्थ के बिना पुण्यकर्म उदय में नहीं आता है। आप घर में हाथ जोड़कर बैठे रहोगे... और पुण्यकर्म उदय में आ जायेगा क्या? पुरुषार्थहीन कायर एवं आलसी व्यक्ति की मर्यादा का विचार कर, पुरुषार्थ करते चलो।
आज बस, इतना ही।
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