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प्रवचन -८०
८१
धार्मिक क्रियाकांड करनेवाले परिवारों में भी रेडियो और टी.वी. प्रविष्ट हो गये हैं। लोग अच्छा-बुरा सब सुनते हैं, अच्छा-बुरा सब कुछ देखते हैं। विवेक ही नहीं रहा है। कान को प्रिय लगे वह सुनना और आँखों को प्रिय लगे वह देखना-यह बात व्यापक बन गई है। धर्म की आज्ञाओं की अवहेलना हो रही है । मनुष्य का व्यक्तित्व गिरता जा रहा है। मनुष्य जैसा सुनता है और जैसा देखता है वैसा उसका व्यक्तित्व बनता है ।
क्या रखा है फिल्मों में ! :
९९ प्रतिशत चलचित्र भी कैसे बनते हैं ? स्वदेशी और विदेशी चलचित्रों का निर्माण किस दृष्टि से होता है ? है क्या मानवता की दृष्टि ? है क्या आध्यात्मिकता की दृष्टि ? है कोई महान् व्यक्ति के निर्माण की दृष्टि ? हाँ, एक मात्र अर्थोपार्जन की दृष्टि है । मानव जीवन के उच्च मूल्यों का चलचित्रों में स्थान ही कहाँ है? दया, करुणा, त्याग, बलिदान, औदार्य, धैर्य... वगैरह आदर्शों का चलचित्रों मे स्थान ही कहाँ है ? अविनय, औद्धत्य, झूठ, चोरी, दुराचार की ही बोलबाला हो रही है। अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ के प्रति उत्तेजना पैदा करने का ही काम हो रहा है।
संयम से काम लें !
कहने का तात्पर्य यह है कि श्रवणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय को संतुष्ट करना है तो करें, परन्तु प्रशस्त विषयों से करें। तो काम - पुरुषार्थ भी धर्मपुरुषार्थ में प्रेरक तत्त्व बन जायेगा ।
वही भोजन करें कि जो भक्ष्य हो, प्रकृति के विपरीत नहीं और शास्त्रनिषिद्ध न हो । अभक्ष्य भोजन नहीं करना चाहिए । प्रकृतिविरुद्ध और शास्त्रनिषिद्ध भोजन नहीं करना चाहिए। वैसे, उसी ही पेय का पान करें कि जो पेय प्रकृतिविरुद्ध न हो और शास्त्रनिषिद्ध न हो । खाने-पीने का निषेध, धर्म नहीं करता है, परन्तु विवेकपूर्वक खाने-पीने का उपदेश देता है। रसनेन्द्रिय की संतुष्टि करना है तो करें, परन्तु विवेक से करें। दोनों प्रकार का विवेक चाहिए : धार्मिक और आर्थिक |
बाहर का खाना छोड़ो ! :
आपकी आर्थिक स्थिति का ख्याल आपको होना चाहिए। उसी के अनुरूप खाने-पीने का प्रबन्ध करना चाहिए। बड़े शहरों में कुछ वर्षों से होटलों में
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