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प्रवचन-८० विज्ञापनों का नशा छाया है :
इन विषयेच्छाओं को भड़काते हैं, छोटे-बड़े अखबारों में प्रकाशित विज्ञापन । लोग सच्चे-झूठे विज्ञापनों को पढ़ते रहते हैं। शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से सम्बन्धित असंख्य विज्ञापन आजकल अखबारों में छपते रहते हैं | मनुष्य के मन पर विज्ञापनों का प्रबल असर होता है, यदि वह मनुष्य विवेकहीन व्यक्तित्व वाला होगा तो । ज्यादातर लोगों में विवेक है ही कहाँ? अनुकरण की वृत्ति भी, ऐसे लोगों में ही विशेष रूप से पायी जाती है। वैषयिक सुख-सुविधाओं का विवेकहीन अनुकरण हो रहा है। मनुष्य में वैभवशाली प्रदर्शन की तीव्र स्पर्धावृत्ति प्रबल हो उठी है। साधनसंपन्न मनुष्य भी दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक कष्टपूर्ण, अशान्तिपूर्ण परिस्थिति में फँसता जा रहा है। दुर्बलता, रुग्णता, उद्विग्नता, स्वजनों की कृतघ्नता, मित्रों की शत्रुता, वगैरह से श्रीमन्त मनुष्य भी कितना त्रस्त है? सुख-सुविधाएँ होने पर भी मनुष्य कितना परेशान है? त्रास और परेशानियाँ होंगी ही। कामासक्त मनुष्य, विषयासक्त मनुष्य स्वस्थ, नीरोगी और प्रसन्न नहीं रह सकता है। शारीरिक दृष्टि से निर्बल होगा, आर्थिक दृष्टि से निर्धन होता जायेगा, पारिवारिक दृष्टि से अविश्वसनीय बनेगा, सामाजिक दृष्टि से अकेला पड़ जायेगा।
आप लोग, अपने हृदय पर पड़े हुए पर्दे को खोलकर कभी भीतर में देखते हो क्या? इन्द्रियों के विषयसुखों की चमक दमक के पीछे कितनी पीड़ा, कितनी खोज और कितनी निराशा भरी पड़ी है? मनुष्य किस कदर खोखला बन गया है? क्या इस आपाधापी में मानवीय गरिमा और सभ्यता का अन्त आ जायेगा? लोग ऐसे माहौल में जी रहे हैं कि जिसमें आतंक, अनाचार और प्रपंच-पाखंड के अतिरिक्त और कुछ बच ही नहीं रहा है। सर्वत्र विषाक्त वातावरण छाया हुआ है। सुखोपभोग भी सोच-समझकर!
इहलौकिक-पारलौकिक प्रयोजनों को सिद्ध करनेवाले धर्मपुरुषार्थ को एवं इहलौकिक प्रयोजनों को सिद्ध करनेवाले अर्थपुरुषार्थ को भूलकर, जो मनुष्य मात्र वैषयिक सुखों में डूब जाता है, वह मनुष्य अपना विनाश तो करता ही है, साथ-साथ परिवार की भी अधोगति करता है।
कामपुरुषार्थ में आर्थिक दृष्टि से एवं धार्मिक दृष्टि से मनुष्य को जाग्रत रहना चाहिए | रुपयों के बिना वैषयिक सुख प्राप्त नहीं होते हैं । वैषयिक सुख
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