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प्रवचन- ८०
८५
के
पुत्र की दयनीय स्थिति देखी... । मित्रपुत्र की पत्नी से सारी बात जान ली और उन्होंने उस युवक को बहुत समझाया । सही रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी, आर्थिक सहारा दिया। धर्म का रास्ता बताया... और वह परिवार दुर्गति में गिरते-गिरते बच गया ।
सोचना कि यदि उस युवक को उस महानुभाव का सहारा नहीं मिलता तो क्या होता? सहारा देनेवाला मिल जाता, परन्तु वह यदि कुछ समझने को ही तैयार नहीं होता तो? ऐसे लोग भी दुनिया में देखे जाते हैं कि बरबाद हो जाने पर भी गलत रास्ते को छोड़ते नहीं हैं और सही रास्ते पर आते नहीं हैं। व्यसनपरवशता उस मनुष्य का सर्वनाश करके ही छूटती है।
इसलिए ग्रन्थकार आचार्यश्री कहते हैं कि तीनों पुरुषार्थ इस प्रकार करें कि जिससे किसी पुरुषार्थ से जीवन को नुकसान न हो। इहलौकिक दृष्टि से और पारलौकिक दृष्टि से आत्मा को नुकसान न हो । दिमाग स्वस्थ होगा तो ही धर्म-अर्थ-काम का सन्तुलन बनाये रख सकोगे ।
इस विषय में विशेष विवेचन आगे करूँगा । आज बस, इतना ही ।
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