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प्रवचन-७९ सौराष्ट्र के जूनागढ़ का राज्य पाने के लिए उसने बारह वर्ष तक संघर्ष जारी रखा था। मानव जीवन के मूल्यवान वर्ष उसने युद्धों में बरबाद कर दिये थे। परंतु, एक दिन उसकी आँखें खोलनेवाला दूसरा राजा मिल गया। वह था मालवा का राजा मदनवर्मा ।
जब सिद्धराज ने मालवा पर आक्रमण किया, सिद्धराज का दूत राजा मदनवर्मा से मिलने आया, मदनवर्मा तो राजदूतों से मिलता ही नहीं था। महामंत्री मिले। सिद्धराज का संदेश महामंत्री ने मदनवर्मा को सुनाया। मदनवर्मा ने महामंत्री से कहा : 'उस कबाड़ी सिद्धराज को जितने रुपेय चाहिए उतने दे दो और बिदा कर दो।'
महामंत्री ने सिद्धराज के दूत को मदनवर्मा का संदेश सुनाया। दूत ने जाकर सिद्धराज से कहा : 'महाराजा, राजा मदनवर्मा ने कहा है कि 'उस कबाड़ी सिद्धराज को जितने रुपये चाहिए उतने मिल जायेंगे, लेकर वह यहाँ से रवाना हो जाय ।' और, राजा तो किसी राजदूत को मिलता भी नहीं है। राजसभा में भी कम ही आता है...। दिन-रात अन्तःपुर में रहता है, पाँच इन्द्रियों के विषयसुख भोगता है।'
सिद्धराज दूत की बातें सुनकर गहरे विचार में डूब गया। उसने मुझे 'कबाड़ी' कहा...जितने रुपये चाहिए उतने देने को तैयार हुआ...दिन-रात अन्तःपुर में - रनिवास में रहता है...यह कैसा राजा है? मुझे उससे मिलना होगा।
सिद्धराज मदनवर्मा से मिला। मदनवर्मा ने बड़े प्रेम से सिद्धराज का स्वागत किया। सिद्धराज ने पूछा : 'मुझे 'कबाड़ी' क्यों कहा?' मदनवर्मा ने सस्मित कहा : 'हे गुर्जर नरेश, आप इतने सारे युद्ध क्यों करते हैं? आपको धनदौलत चाहिए न? जिसको 'कपर्दिका' (पैसा) से प्रेम होता है, उसी को पाने के लिए जो जीता है, वह 'कबाड़ी' कहलाता है। राजन्, क्या आपके अन्तःपुर में रानियाँ नहीं हैं? क्या आपका परिवार नहीं है? इतना सारा राज्यवैभव किसलिए मिला है? युद्ध के मैदानों पर ही जीवन पूरा कर देने का है? संसार के सुख मिलने पर भी जो भोगता नहीं है और ज्यादा सुख पाने के लिए लड़ता-झगड़ता रहता है, वह मेरी दृष्टि में बुद्धिमान् नहीं है।'
सिद्धराज को मदनवर्मा की बात अच्छी लगी। उसने अपना आत्म-निरीक्षण किया। अपनी राजधानी पहुँच कर, उसने युद्ध नहीं करने का संकल्प किया। बाद में तो आचार्यदेव श्री हेमचन्द्रसूरिजी के संपर्क में आया और जीवन में
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