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प्रवचन-७९ अर्थप्राप्ति हो गई हो, उस व्यक्ति को ज्यादा अर्थप्राप्ति के व्यामोह में नहीं फँसना चाहिए, यानी अर्थपुरुषार्थ में उलझना नहीं चाहिए। यों तो, किसी भी पुरुषार्थ में मनुष्य उलझेगा तो दूसरे पुरुषार्थों को नुकसान पहुँचायेगा ही! यानी अर्थपुरुषार्थ में उलझा हुआ मनुष्य, धर्मपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ को और क्षति पहुँचाता है। धर्मपुरुषार्थ में उलझा हुआ मनुष्य, अर्थपुरुषार्थ को और कामपुरुषार्थ को क्षति पहुँचाता है। स्वयं को क्षति पहुँचाता है और दूसरों को भी क्षति पहुंचाता है। पारिवारिक जीवन को नुकसान होता ही है। केवल पैसा ही सब कुछ!
बंबई में एक डॉक्टर थे। 'मैं मनुष्यों की सेवा करता हूँ,' सिर्फ बोलते ही थे, उनका लक्ष्य था धन और संपत्ति । प्रातः ६ बजे उठ कर वह अपने 'क्लिनिक' में चले जाते थे और रात को १० बजे वह घर वापस लौटते थे। उनकी तीन या चार संताने थीं। संतानें अपने पिता को रविवार के दिन ही देख सकती थीं! चूँकि रविवार के दिन डॉक्टर 'क्लिनिक' में नहीं जाते थे। फिर भी, मरीज घर पर आते रहते थे। बच्चों के साथ डॉक्टर बैठ नहीं सकते थे, बातें नहीं कर सकते थे। पत्नी का भी असंतोष बढ़ता जाता था। डॉक्टर पत्नी को भी संतोष नहीं दे पाता था। केवल रुपयों से क्या घर चलता है? डॉक्टर घर के लिए पत्नी को रुपये तो काफी देता था, परन्तु पत्नी की बातें सुनने का उसके पास समय नहीं था। उनकी तो एक ही लगन थी...हिमालय जितना धन का ढेर कर देना था! ___ धर्म की बात ही नहीं! न मंदिर जाते थे, न धर्मोपदेश सुनने धर्मगुरुओं के पास जाते थे! न कभी सामायिक करते थे, न कभी प्रतिक्रमण करते थे! हम लोग पास में ही चातुर्मास रहे हुए थे...परन्तु पर्युषण पर्व में संवत्सरी के दिन ही हमने उनको देखा। उनके पिताजी ने पहचान करवायी थी।
उनका मन ही धर्मक्रिया में लग नहीं सकता था। उनकी एक ही धुन थी श्रीमन्त बनने की। उन्होंने न तो धर्मपुरुषार्थ किया, न काम-पुरुषार्थ में सफलता पायी। असंतुष्ट पत्नी से उनको कैसे कामसुख मिलता? कैसे प्रेमस्नेह व आदर मिलता? वह धीरे-धीरे घर से दूर होते गये। लड़के-लड़कियों का भी उनके प्रति आदर-स्नेह नहीं रहा। उधर, डॉक्टर के जीवन में एक दूसरी स्त्री ने प्रवेश किया। गृहक्लेश उग्र बना। माता, पिता, पत्नी, संतान, सभी के जीवन अशान्तिमय बन गये ।
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