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प्रवचन-७७
३. परिग्रही मनुष्य, उसके अपराधी को कभी क्षमा नहीं करेगा। वह सजा करने में ही राजी होता है। कई श्रीमन्त ऐसे देखे जाते हैं कि उनके रुपये किसी ने लिये हों और समय पर चुका नहीं सका, तो तुरन्त वह श्रीमन्त कोर्ट में जायेगा...रुपये वसूल करने के लिए कोई भी पाप कर लेगा।
४. परिग्रह का दूसरा पर्याय ही व्याकुलता है। धनासक्त मनुष्य निराकुल हो ही नहीं सकता। सम्पत्ति पाने में व्याकुलता, संपत्ति की रक्षा करने में व्याकुलता और लक्ष्मी चली जाय तब भी व्याकुलता | परिग्रही का हृदय शान्त
और स्वस्थ हो ही नहीं सकता। इसका प्रमाण खोजने के लिए भूतकाल को टटोलने की आवश्यकता नहीं है। वर्तमान काल में एक एक परिग्रही के हृदय के 'कार्डियोग्राम' देख लो।
५. परिग्रही-श्रीमन्त अभिमानी होगा ही। विनम्र श्रीमन्त कभी ही देखने को मिलेगा। अमीरी अभिमान से अभिशप्त होती है। श्रीमंत व्यक्ति यदि सम्यक्ज्ञानी नहीं होगा, अपनी सम्पत्ति के प्रति थोड़ा भी अनासक्त नहीं होगा, तो वह दूसरों के ऊपर रौब जमाने का प्रयत्न करेगा। दूसरों का तिरस्कार करेगा। परिग्रह के साथ प्रायः अभिमान रहता ही है।
६. परिग्रह ध्यान का शत्रु है। मनुष्य के मन में किसी भी प्रकार का ममत्व होगा, मूर्छा होगी, तो वह परमात्मा का ध्यान नहीं कर सकेगा। परिग्रही का मन धन के अलावा कहीं पर भी स्थिर नहीं रह सकता। फिर वह परिग्रह पाँच रुपये का हो, पाँच सौ रुपये का हो या पाँच लाख का हो। ममत्व, आसक्ति... मन को स्थिर रहने ही नहीं देंगे। यदि परमात्मध्यान में निमग्न होना है, स्थिरता प्राप्त करनी है...तो ममत्व से, आसक्ति से छुटकारा पाना ही होगा।
७. परिग्रह से दुःख आते ही हैं। दुनिया यह मानती है कि जितना परिग्रह ज्यादा उतना सुख ज्यादा! ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि जितना परिग्रह ज्यादा उतना दुःख ज्यादा! हाँ, श्रीमन्त होगा तो सुख के साधन उसके पास ज्यादा हो सकते हैं, परन्तु वह स्वयं सुख का अनुभव नहीं कर सकता है। कोई न कोई दुःख होता ही है। पारलौकिक दृष्टि से तो परिग्रह दुर्गति के दुःख देता ही है।
८. परिग्रह से सुख का नाश होता है। आन्तर सुख का नाश होता है। चित्त के सुख का नाश होता है। विषयासक्त मन, लोभमूर्च्छित मन कभी भी सुखानुभव नहीं कर सकता है। सुख के बाह्य साधन कितने भी ज्यादा हों, परन्तु मन अशान्त हो, मन उद्विग्न हो तो उन साधनों से क्या? दूसरी बात,
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