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प्रवचन- ७८
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आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने का अनुभव होता है । वे तो सदैव बाह्य परिस्थितियों में उलझे हुए रहते हैं। अपने जीवन-प्रवाहों में परिवर्तन करने की बात, वे लोग विवेकपूर्वक सोच नहीं सकते हैं । ऐसे लोगों की सफलता वहाँ तक सीमित रहती है, जब तक अनुकूलता उपलब्ध होती है।
चिंतन ही ज्ञान की कुंजी है :
जब तक मनुष्य बाह्य परिस्थितियों में उलझा हुआ रहता है, तब तक वह आत्मचिन्तन नहीं कर सकता है। बाह्य परिस्थितियों की विसंवादिता तो चलती ही रहेगी। अनुकूलता - प्रतिकूलता का चक्र तो चलता ही रहेगा जीवनपर्यंत । तो फिर आत्मचिन्तन कब करेंगे? बिना आत्मचिन्तन, व्रत - नियमों की महत्ता कैसे समझ पायेंगे? बिना आत्मचिंतन किये, सम्यक्ज्ञान की आवश्यकता कैसे महसूस करेंगे।
आत्मकेन्द्रित तो होना ही पड़ेगा । दिन-रात में ५/१० मिनट भी आत्मचिंतन करना पड़ेगा। ‘मैं कौन हूँ?' और 'मेरा क्या है ?' ये दो प्रश्न अपनी आत्मा से पूछने पड़ेंगे। उसके बाद, दूसरे दो प्रश्न अपनी आत्मा से पूछने के हैं : 'मैं कहाँ से आया हूँ?', 'मैं कहाँ जाऊँगा?'
आत्मचिंतन का प्रारम्भ इन प्रश्नों से शुरू करें।
सभा में से इन प्रश्नों के उत्तर तो हमें आते नहीं हैं।
महाराजश्री : उत्तर आते होते तो प्रश्न पूछने की क्या आवश्यकता थी? उत्तर नहीं आते हैं इसलिए प्रश्न है ! प्रतिदिन पूछते रहेंगे...तो भीतर से उत्तर मिलेंगे! बाहर से तो उत्तर मिलते ही हैं, परन्तु वे उत्तर उतने मर्मस्पर्शी नहीं बनते, जितने भीतर से मिलनेवाले उत्तर बनते हैं।
सभा में से: फिर भी, आत्मचिन्तन करने की पद्धति बताने की कृपा करें ... I
आत्मचिंतन करने का तरीका :
महाराजश्री : ठीक है, बताता हूँ। आत्मचिन्तन करने का समय ऐसा पसंद करें कि जब आपको एकान्त मिलता हो । शान्ति से बैठकर सोचें कि 'मैं कौन हूँ? वास्तव में मैं कौन हूँ? जो मेरा बाह्य शारीरिक रूप है, वह मैं नहीं हूँ । लोग मुझे जिस नाम से पुकारते हैं...वह भी मैं नहीं हूँ। मैं तो विशुद्ध आत्मा हूँ। मेरा वास्तविक स्वरूप शुद्ध है । सारी अशुद्धियाँ कर्मजन्य हैं। कर्मजन्य
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