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प्रवचन- ७९
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● धर्म, अर्थ और काम-ये तोनों विभाग परस्पर संकलित हैं और हमें इनका पालन भी इस तरह करना है ताकि किसी भी विभाग की हानि न हो ।
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● देखिए, जैसे किसी विभाग को उपेक्षा नहीं करना है वैसे हो किसी भी विभाग में अतिरेक भी नहीं करना है। अन्तिम छोर हमेशा दुःखदायी होता है।
● पैसे के पीछे पागल बना हुआ आदमी न तो आत्मा या परमात्मा के बारे में सोचता है... नहीं औरों को सुख-दुःख को संवेदना उसके भीतर में उठती है! परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों से भी वह आँख चुराता है। चूँकि उसके लिए पैसा हो सब कुछ है।
● जिसके लिए पैसा इकट्ठा करने का दावा करते हो कभी उस परिवार को भी देखो! आपको पत्नी, आपके बच्चों के जीवन में झाँको!
प्रवचन : ७९
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परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में २५वाँ गृहस्थोचित सामान्य धर्म बताते हैं : परस्पर संकलित रूप से एक-दूसरे का उपघात न हो वैसे धर्म, अर्थ और काम का सेवन करना ।
ग्रन्थकार आचार्यदेव ने धर्म, अर्थ और काम का निर्देश 'त्रिवर्ग' शब्द से किया है। गृहस्थ जीवन के सभी क्रिया-कलापों का समावेश 'त्रिवर्ग' में हो जाता है। यानी गृहस्थ की एक भी क्रिया ऐसी नहीं है कि जिसका समावेश 'त्रिवर्ग' में नहीं होता हो ।
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धर्म, अर्थ और काम-ये तीन वर्ग या तीन विभाग, परस्पर संकलित हैं । तीन विभाग में से एक भी विभाग को हानि न हो, वैसे उनका सेवन करने का है। धर्म-आराधना, अर्थोपार्जन और विषयभोग - इन तीन प्रकार के क्रिया-कलापों का परस्पर सामंजस्य स्थापित होना चाहिए। किसी की भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए ।
जैसे उपेक्षा नहीं होनी चाहिए, वैसे अतिरेक भी नहीं होना चाहिए । उपेक्षा