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प्रवचन-७८
___ हमें ऐसा चिन्तन करना है कि : 'मैं कितने जनम-मरण करता करता इस मनुष्य गति में आया हूँ| कितना दुर्लभ यह जीवन मुझे मिला है...। इस जीवन का मुझे दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। हिंसा, झूठ, चोरी, अनाचार...क्रोधमान-माया-लोभ...जैसे पापों से मुझे मेरा यह मानवजीवन निष्फल नहीं बनाना है। पूर्वजन्म में मैंने कुछ अच्छे काम किये होंगे, धर्म की आराधना की होगी, पुण्य कर्म किये होंगे...तभी मुझे ऐसा अच्छा जीवन मिला है।' __चौथा प्रश्न है : 'मरकर मैं कहाँ जाऊँगा?' यदि मैं इस जीवन को पापों में ही बिता दूंगा तो अवश्य पशु-पक्षी की योनि में अथवा नरक योनि में जाऊँगा। नहीं, मुझे अब दुर्गतियों में नहीं जाना है। यदि मैं धन-संपत्ति की माया-ममता में, कुटुम्ब-परिवार की माया-ममता में फंसा हुआ रहूँगा...पापाचरण करता रहूँगा...तो मेरी दुर्गति ही होगी। दुर्गति के भयानक दुःख क्या मुझे से सहन होंगे? __ अब मुझे उन्नति की ओर अग्रसर होना है। अवनति की गहरी खाई में गिरना नहीं है। ज्ञानी और व्रतधारी महापुरुषों से जीवन जीने का मार्गदर्शन लेता रहूँगा। दुर्गति में ले जानेवाले पापाचरणों का मैं अवश्य त्याग करूँगा।' सत्संग से जो महान् बने :
इस प्रकार कुछ आत्मचिन्तन करना चाहिए | लक्ष्य का निर्णय कर, जीवनयात्रा करते चलो। समय-समय पर ज्ञानी एवं व्रतधारी महापुरुष का मार्गदर्शन लेते रहो। जीवनपर्यंत ऐसे महापुरुषों से संपर्क बनाये रखो। जिनशासन में ऐसे अनेक गृहस्थ श्रावक-श्राविका के नाम मिलते हैं कि जिन्होंने ज्ञानी महापुरुषों के संपर्क में रहते हुए, उनसे समय-समय पर मार्गदर्शन लेते रहे, उनकी सेवा-भक्ति करते रहे और अपने जीवन को उन्नत बनाते रहे | धर्म की आराधना भी करते रहे और धर्म की प्रभावना भी करते रहे। कुछ प्रसिद्ध ऐतिहासिक उदाहरण बताता हूँ :
० राजा विक्रमादित्य ने श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी से धर्मतत्त्व को पाया, उनसे जीवनपर्यंत संपर्क बनाये रखा।
० राजा आम ने, आचार्य श्री बप्पभट्टी से धर्मतत्त्व को पाया और जीवनपर्यंत उनकी सेवा की।
० राजा कुमारपाल ने आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजी से धर्मतत्त्व पाया और आजीवन उनकी और उनके शिष्यों की सेवा की।
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