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प्रवचन- ७८
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पीते। एक दफे आँखों का ओपरेशन करवाया था, उस समय भी एकासन नहीं छोड़ा। पानी भी एकासन करते समय ही पिया... । ओपरेशन सफल हो गया था। उनका मनोबल कितना दृढ़ होगा ?
मैंने उनसे पूछा था : ‘इतनी सुन्दर व्रतोपासना और ज्ञानोपासना आप कैसे कर पाये?' उन्होंने कहा था : 'यह सारी कृपा है ज्ञानी ऐसे गुरुदेवों की । मुझ पर गुरुजनों का महान् अनुग्रह है । उनका उपकार मैं भवोभव नहीं भूल सकता हूँ।'
आज वे नहीं रहे हैं, परन्तु उनके गुणों की सुवास तो फैली हुई है। ऐसे सद्गृहस्थ प्रेरणास्त्रोत होते हैं। प्रेरणा लेने की दृष्टि होगी तो ही प्रेरणा ले सकेंगे।
व्यक्तित्व को अन्तर्मुखी बनाइये :
वही मनुष्य अपने जीवन में ऐसा सुन्दर परिवर्तन ला सकता है कि जो बाह्य परिस्थितियों के प्रभाव से प्रभावित नहीं होता है। जिनका व्यक्तित्व परिपक्व होता है। अन्तर्मुखी व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहिए। ज्ञानी पुरुषों का संपर्क, ऐसे व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। ज्ञानी महापुरुषों के चरणों में पूर्णरूपेण समर्पण होना जरूरी होता है। गृहस्थ भी समर्पित हो सकते हैं। अपने शारीरिक और मानसिक बल के अनुरूप उनका समर्पण होगा।
इस विषय में एक विदेशी तत्त्वचिंतक ' जी - डब्ल्यू- आलपोर्ट' लिखता है कि : बाह्य परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना, आत्मचिन्तन में लीन रहना चाहिए । अपने लक्ष्य को बहुत स्पष्टता से जानने का प्रयास करना चाहिए। ऐसी स्थिति में मनुष्य परमार्थरत रहने पर भी लोकप्रवाह में बह जाता नहीं है । जीवन के आदर्शों का सदैव ध्यान रखते हुए, अपने आपको कभी भी दिशाशून्य नहीं होने देना चाहिए। प्रौढ़ व्यक्ति की सभी क्रियाएँ और सभी चिन्तन, आदर्शप्रेरित और आदर्श - संचालित होता है ।
जो अन्तर्मुख व्यक्तित्ववाले नहीं होते हैं, उनकी आन्तर - बाह्य स्थिति का विश्लेषण, 'कार्ल जुंग' नाम के तत्त्वचिंतक ने अच्छा किया है। वह लिखता है : ‘बहिर्मुख चिन्तन, अविकसित व्यक्तित्व का परिचायक है। ऐसे मनुष्य परिस्थितिजन्य संवेदनाओं से प्रभावित होते हैं । ऐसे लोग परिस्थितियों से अपना तालमेल बिठाने का प्रयत्न करते हैं अथवा परिस्थितियों को बदलने के प्रयत्न करते रहते हैं। उनको आत्मचिन्तन की न तो आवश्यकता महसूस होती है, न ही
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