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प्रवचन-७८
परिग्रह-परिमाण का व्रत, धन-संपत्ति का मोह कम करने के लिए लिया जाता है। परिग्रह का पापपिशाच जीवात्मा को नोंच न डाले इसलिए लिया जाता है।
गुरुदेव श्री धर्मघोषसूरिजी ने दीर्घदृष्टि से पेथड़शाह को पाँच लाख रुपये का परिग्रह-परिमाण करवाया था । व्रत देनेवालों का, व्रत लेनेवाले का व्यक्तित्व ख्याल में रहना चाहिए | व्रत देने का अधिकार, ज्ञानी-गीतार्थ पुरुषों को ही है। विशिष्ट ज्ञानी पुरुष ही व्रत दे सकते हैं। व्रत लेनेवाले की उम्र, उसके संयोग, उसका भाग्य, उसका मनोबल... यह सब देखकर व्रत दिया जाना चाहिए। प्रतिज्ञा का पालन दृढ़तापूर्वक करें :
व्रत-नियम और प्रतिज्ञाएँ देने मात्र से लेनेवाले का कल्याण नहीं हो जाता है। उन लिये हुए व्रतों का पालन करे, दृढ़ता से पालन करे, तो ही उसका आत्मकल्याण हो सकता है। इसमें भी, आजीवन व्रत देने में तो काफी सोचना चाहिए। आज के निर्बल मनवाले लोग, व्रत-पालन करने में कितने समर्थ हो सकते हैं - उसका गंभीरता से विचार करना चाहिए| मनुष्य संयोग और परिस्थिति का जब तक गुलाम है तब तक उसको व्रत देना, आजीवन व्रत देना, कहाँ तक उचित है, वह सोचना बहुत जरूरी है। व्रत लेने के बाद, जब व्रत-पालन की दृष्टि से प्रतिकूल संयोग पैदा होते हैं, तब कितनी दृढ़ता से वह व्रत को निभाता है - यह भी देखना चाहिए | ___ व्रत लेते समय मन उल्लसित होता है, परन्तु जब मन का उल्लास मंद पड़ जाता है, मनोबल गिर जाता है तब वह व्रत-पालन कर सकेगा या नहींयह भी सोचना चाहिए। व्रत लेनेवालों की अपेक्षा व्रत देनेवालों की जिम्मेदारी ज्यादा होती है। चूंकि उन पर विश्वास करके व्रत लेनेवाला व्रत लेता है।
रोगी तो नीरोगी बनने की आशा से, श्रद्धापूर्वक डॉक्टर के पास जाता है। कितनी और कैसी दवाई देना, वह डॉक्टर को सोचने का है। रोगी के जीवन की जिम्मेदारी डॉक्टर की हो जाती है।
पेथड़शाह, व्रतधारी और श्रुतधर ऐसे महापुरुष के सेवक बन गये। आगे क्या होता है आज नहीं बताऊँगा।
आज बस, इतना ही।
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