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प्रवचन-७८
___ ५६ ०७२ हजार रुपयों का सद्व्यय करके, गुरुदेव श्री धर्मघोषसूरिजी का मांडवगढ़ में प्रवेश करवाया।
० मांडवगढ़ के आसपास चार कोश तक यदि गीतार्थ आचार्यदेव विचरते हों तो उनके पास जाकर पाक्षिक-प्रतिक्रमण करते थे। ऐसा उनका साधु पुरुषों के प्रति दृढ़ अनुराग था।
०३२ वर्ष की उम्र में, धर्मपत्नी के साथ उन्होंने ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार किया था।
०३६ हजार स्वर्णमुद्राओं से ज्ञान-भक्ति करते हुए, विनयपूर्वक पंचमांग भगवती-सूत्र उन्होंने सुना था।
० सात बड़े ज्ञानभंडार बनवाये। ० हर पुस्तक के ऊपर स्वर्ण की पट्टियाँ बँधवायी। ० प्रतिदिन मध्याह्न काल में परमात्मा की पूजा करते थे। ० राजा की रानी लीलावती की रक्षा की।
० रास्ते में जाते समय यदि कोई नया साधर्मिक दिखाई देता तो अश्व पर से नीचे उतर जाते और साधर्मिक को नमस्कार करते थे। साधर्मिकों के प्रति उनके हृदय में अपूर्व प्रीति थी। सेवा के अनेक प्रकार :
ये तो मैंने संक्षेप में उनके सुकृत बताये हैं। आचार्य श्री धर्मघोषसूरिजी की सेवा का यह फल था । परन्तु, 'सेवा' का अर्थ आप लोग समझे हैं क्या? सेवा का एक अर्थ होता है गुरुदेव को आहार-पानी, वस्त्र-पात्र, औषध वगैरह आदर के साथ देना। दूसरा अर्थ होता है गुरुदेव की आज्ञा का पालन करना। गुरुदेव से सम्यग्ज्ञान पाना । गुरुदेव से व्रतनियम ग्रहण करना। गुरुजनों का विनय करना, आदर देना और उनके प्रति हार्दिक प्रीति रखना। ___ एक दिन, परमात्मा की पूजा करने के बाद पेथड़शाह गुरुदेव को वंदन करने उपाश्रय गये। उपाश्रय में अनेक साधु-मुनिराज शास्त्र-स्वाध्याय कर रहे थे। स्वाध्याय का मधुर घोष महामंत्री ने सुना । स्वाध्याय-ध्वनि उनको बहुत ही कर्णप्रिय लगी। गुरुदेव को विधिवत् वंदन कर, योग्य स्थान पर वे बैठे। ___ पास में ही एक मुनिराज, दूसरे मुनिराज को एक जिनागम का अध्ययन करवाते थे। उस आगम में बार-बार 'गौतम' शब्द आता था। पेथड़शाह एक
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