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प्रवचन-७७
४८ ज्ञानी महापुरुष का आकस्मिक योग, पेथड़शाह के जीवन में श्रद्धा का दीपक जला देता है। चरित्रनिर्माण की नींव डाल देता है। गुरुदेव श्री धर्मघोषसूरिजी सर्वप्रथम पेथड़शाह को 'सम्यक्त्व' का स्वरूप समझाते हैं और प्रभाव बताते हैं। श्रद्धा के बिना व्रत या महाव्रतों का कोई विशेष फल नहीं है। श्रद्धा के बिना ज्ञान और ध्यान की कोई महत्ता नहीं है। आत्मविशुद्धि की आराधना का प्रारंभ श्रद्धा से होता है। श्रद्धा होनी चाहिए परमात्मा के प्रति, श्रद्धा होनी चाहिए सद्गुरु के प्रति और श्रद्धा होनी चाहिए धर्म के प्रति । आचार्यदेव ने पेथड़ के हृदय में सम्यक्त्व का दीपक जला दिया। परिग्रह का ग्रह बड़ी पीड़ा करता है : __परिग्रह-परिमाण का व्रत देने से पूर्व, गुरुदेव परिग्रह की विनाशकारिता समझाते हैं। उन्होंने कहा : 'परिग्रह की वासना से द्वेष पैदा होता है। परिग्रह की वासना मनुष्य के धैर्य को नष्ट कर देती है। परिग्रह की वासना मनुष्य को क्षमाशील नहीं बनने देती। परिग्रही मनुष्य सदैव व्याकुलता से जीता है | परिग्रही मनुष्य अभिमानी होगा। परिग्रही मनुष्य कभी भी परमात्मा का ध्यान नहीं कर सकता। परिग्रह का परिणाम दुःख है, सुखनाश है और पापकर्मों का बन्धन है।' __ परिग्रह के नौ अनर्थ-अनिष्ट, आचार्यदेव ने बताये | गहरा चिन्तन करने जैसी बातें बताई हैं। रुपये के पीछे पागल बने लोग क्या इन बातों पर सोचेंगे? रुपयों की आसक्ति के दुष्परिणाम :
१. परिग्रह की वासना में से द्वेष पैदा होता है। बाहबली को भरत के प्रति द्वेष क्यों हुआ था? ९८ भाइयों को भरत के प्रति द्वेष क्यों पैदा हुआ था? परिग्रह की वासना थी। ज्यों ही परिग्रह की वासना नष्ट हुई, द्वेष मिट गया त्यों ही समभाव प्रगट हुआ। ___ मनुष्य के जीवन में जो भी छोटे-बड़े कलह.. झगड़े होते हैं, क्यों होते हैं? इसी परिग्रह की वजह से। परिग्रह की वासना यानी आसक्ति मूर्छा...गृद्धि ।
२. परिग्रह की वासना मनुष्य के धैर्य को नष्ट करती है। मनुष्य अधीर बन जाता है । 'मेरा धन वह ले जायेगा तो? मेरी सम्पत्ति चली जायेगी तो?' अधीर यानी चंचल।
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