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प्रवचन-७७
__ ४५ कामनावालों की साधुसेवा ही सच्ची साधुसेवा है । भौतिक ऋद्धि-सिद्धियाँ पाने की भावना से, दुःख-दर्दो से छुटकारा पाने के लिए ही जो साधु-पुरुषों के पास आते-जाते हैं, उन लोगों को ज्ञान या व्रतों से कुछ लेना-देना नहीं होता है।
वे लोग, देवी-देवताओं, मंत्र-तंत्रों, पूजा-पाठ और सिद्ध पुरुषों के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं। प्रयोजन एक ही होता है। उनके ऊपर लदी हुई विपत्तियों से किसी कदर छुटकारा दिलाने में उनका वरदान काम आये। ___ ऐसे लोग, गुणात्मक-आध्यात्मिक वैभव को देख ही नहीं सकते हैं। व्रत और ज्ञान, मनुष्य का आध्यात्मिक वैभव है। व्रतपालन करना, कोई खाने का खेल नहीं है। जैन साधु को व्रतपालन त्रिविध-त्रिविध रूप से करना होता है। मन, वचन और काया से व्रतपालन करना होता है। करण-करावण और अनुमोदन से व्रतपालन करना होता है। कुछ उदाहरणों से समझाता हूँ - साधुजीवन के नियम :
० साधु को मन से, वचन से, काया से हिंसा करने की नहीं है। नहीं करनी है, नहीं दूसरों से करानी है और जो भी हिंसा करते हैं, न उनकी अनुमोदना करनी है।
० साधु को मन से, वचन से, काया से मृषा-असत्य बोलना नहीं है। नहीं स्वयं बोलना है, न दूसरों से बुलवाना है, जो असत्य बोलते हैं, न उनकी अनुमोदना करनी है।
० साधु को मन से, वचन से, काया से चोरी (अदत्त) करनी नहीं है। नहीं स्वयं चोरी करनी है, न दूसरों से करवानी है, जो चोरी करते हैं, न उनकी अनुमोदना करनी है।
० साधु को मन से, वचन से, काया से मैथुन (अब्रह्म) का सेवन करना नहीं है। नहीं स्वयं मैथुन-सेवन करना है, न दूसरों से करवाना है, जो मैथुनसेवन करते हैं, न उनकी अनुमोदना करना है।
० साधु को मन से, वचन से, काया से परिग्रह रखना नहीं है। न स्वयं परिग्रह रखना है, न दूसरों से रखवाना है, जो परिग्रह रखते हैं, न उनकी अनुमोदना करना है।
० वैसे साधु को रात्रिभोजन की भी त्रिविध-त्रिविध प्रतिज्ञा होती है। ऐसे महाव्रतों का पालन करनेवाले साधु-पुरुषों के प्रति आप लोगों के हृदय में सद्भाव पैदा हो, तो उनकी सेवा किये बिना चैन नहीं मिले।
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