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प्रवचन-७६ गई...आश्चर्य से उसकी आँखें चौड़ी हो गईं। उसने हार को अपने हाथों में लेकर देखा...' यह मेरा ही हार है-' ऐसा निर्णय हो गया। अब उसको साध्वीजी याद आयी, साध्वीजी ने सुनायी हुई घटना याद आयी । बड़ी पछताने लगी। रोने लगी। घोर पश्चात्ताप करने लगी। साध्वीजी के पास दौड़ती हुई पहुँची। क्षमायाचना की। साध्वीजी के मन में तो कोई रोष था ही नहीं। चूंकि उनकी ज्ञानद्रष्टि खुल गई थी। सच्चा...यथार्थ कार्य-कारण भाव जान लिया था। यथार्थता का अव-बोध होने पर जीव रागद्वेष से मुक्त होता जाता है।
'अब मुझे किसी से भी परिचय करना नहीं है। मुझे तो मेरी आत्मा से परिचय करना है। विशुद्ध आत्मा को पाने का आन्तर पुरुषार्थ करना है। ज्ञानमग्न होना है। परमब्रह्म की मस्ती पाना है। संसार के रागी और द्वेषी जीवों का परिचय मुझे नहीं करना है। उन जीवों का आत्महित तो करेंगे धीर, वीर और गीतार्थ ऐसे साधु भगवंत, आचार्य भगवंत । मुझे तो अब डूबना है आत्मज्ञान में...आत्मध्यान में ।' आप स्वयं सोचें : ___ यह तो हुई एक साध्वीजी और एक महिला की बात । अति परिचय के अनिष्ट आप लोगों में कितने प्रविष्ट हो गये हैं, वे क्या आप नहीं जानते हैं? जानते हो, परन्तु कभी विचार नहीं किया...कि 'मेरी पत्नी सुशील थी, फिर भी क्यों मेरे मित्र के साथ उसने सेक्स-संबंध बाँध लिया? इतना ही नहीं, मित्र की पत्नी के साथ मेरा भी अनुचित संबंध क्यों शुरू हो गया?' हो रही है न ऐसी घटनाएँ संसार में? क्यों? कारण है अति परिचय | अति परिचय में से ही 'मुक्त सहचार' की बातें शुरू हुई हैं। ___ एक परिवार का दूसरे परिवार के साथ अति परिचय होने से, युवक और युवतियों के बीच सेक्स-संबंध बनते देर नहीं लगती है। सदाचारों की होली जलती है। दुराचारों के विषवृक्ष पैदा होते हैं। अति में मति नहीं रहती :
दो परिवारों का घनिष्ट संबंध था । बम्बई में दोनों परिवार रहते थे। एक परिवार की स्त्री का दूसरे परिवार के पुरुष के साथ संबंध हो गया। स्त्री गर्भवती हुई। उसके पति को मालूम था कि 'यह गर्भ उसका नहीं है, उसके मित्र का है। परन्तु परिचय इतना घनिष्ट था...कि इस घटना में उसको कुछ अनुचित नहीं लगा।
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