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प्रवचन-७६ है तो वहाँ भी बातें करती रहती है। दोनों को अच्छा लगता है। साध्वीजी समझती है कि 'मैं सेठानी को धर्मसन्मुख करती हूँ।' और सेठानी मानती होगी कि 'मुझे बहुत अच्छी गुरुणी मिल गई।' परिचय बढ़ता ही चला। साध्वीजी जिनाज्ञा को भूल गई। 'अति परिचय' नहीं करने की जिनाज्ञा विस्मृत हो गई।
एक दिन, साध्वीजी नगरश्रेष्ठि के वहाँ भिक्षा लेने गई। शेठानी स्नानगृह में थी। भिक्षा देनेवाले तो दूसरे लोग घर में थे ही, परन्तु सेठानी को मिले बिना मन कैसे भरे? वह स्नानगृह के बाहर के खंड में खड़ी रही। खंड में वह एकेली ही थी। घर के लोग साध्वीजी से परिचित थे।
मोर ने हार निगला!
जिस खंड में साध्वीजी खड़ी थी, उस खंड में एक ऐसी घटना बनी...कि खुद साध्वीजी आश्चर्यचकित हो गई। उस खंड में पलंग पर सेठानी का स्वर्णहार कि जो रत्नजड़ित था, पड़ा था। पलंग के पास भित्ति पर एक मयूर का चित्र था। उस चित्र में से मयूर जीवंत हुआ, उसने वह हार निगल लिया और पुनः भित्ति के चित्र में समा गया।
सभा में से : ऐसा कैसे संभव हो सकता है? __ महाराजश्री : यह कार्य व्यंतर-देव का था। किसी व्यंतर-देव ने कौतूहल से ऐसा किया था। साध्वीजी इस बात को समझ सकती है, परन्तु सेठानी यह बात कैसे मानती? स्नानगृह से बाहर आकर, पहले तो साध्वीजी को वंदना की, बाद में जब हार लेने जाती है, हार नहीं है। वह स्वयं अपने आपसे पूछती है : 'मैंने पलंग पर मेरा हार रखा था। मुझे बराबर याद है। मेरा हार कहाँ गया?' उसने साध्वीजी के सामने देखा और पूछा :
'आप जब यहाँ आये तब इस पलंग पर मेरा हार देखा था क्या? मैंने पलंग पर ही रखा था...।'
साध्वीजी ने कहा : 'हाँ, हार यहाँ ही पड़ा था... परन्तु कोई नहीं मान सके वैसी घटना बन गई और तुम्हारा हार गायब हो गया...।' साध्वीजी ने जो घटना देखी थी वह कह सुनायी, परन्तु सेठानी के मन में वह बात जॅची नहीं। उसने अपने मन में सोचा : 'यहाँ साध्वीजी के अलावा दूसरा कोई भी आया नहीं है और सोना देखकर...रत्नजड़ित मूल्यवान् हार देखकर इनके ही मन में लालच जगी होगी... इसने ही मेरा हार लिया है।'
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