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प्रवचन-७६ O जहाँ पर साथ-साथ जीना होता है, सहजीवन होता है, वहाँ
पर परिचय तो करना ही पड़ता है... पर किससे परिचय करना, कितना करना, यह सावधानी रखना भी अनिवार्य है। ० बच्चों के बारे में माता-पिताओं को बड़ी समझदारी एवं स्वस्थता से काम लेना चाहिए। उनके मित्रवर्तुल के बारे में परिचित होना ही चाहिए। पर यह बचपन से हो तो ही सार्थक है। बच्चे बड़े होने के पश्चात् उन पर नियंत्रण करना
या रखना अकसर कलह का कारण बन जाता है। ० अति परिचय' तो करना ही नहीं। इसमें अनेक अनिष्ट छुपे
हुए हैं। अति परिचय के कारण दोषदृष्टि जनमती है। ० अपने शील-संस्कार एवं सदाचार की होली जलाये वैसा
परिचय किस काम का? ० जब भी दुःख आये... परेशानी आये तो अपने ही कर्मों को
टटोलो। पूर्वजन्म के पापकर्म उदय में आते हैं तो दुःख मिलता है।
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प्रवचन : ७६
परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में, गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हुए, तेइसवाँ धर्म बताते हैं : 'अति परिचय का त्याग।' ___ परिचय जीवन का अभिन्न अंग है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के परिचय में आता ही है। जन्म होने के बाद परिचय का क्षेत्र विस्तृत होता ही जाता है। माता का परिचय, पिता का परिचय, घर के दूसरे स्वजनों का परिचय, मित्रों का परिचय, समाज का परिचय, नागरिकों का परिचय...यों परिचय बढ़ता ही जाता है। परिचय को सीमित रखना उचित है : ___ मनुष्य के व्यक्तित्व पर 'परिचय' का विशेष प्रभाव गिरता है। अच्छे या बुरे व्यक्तित्व के निर्माण में 'परिचय' महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मनुष्य, जन्म से लगाकर जब तक समझदार नहीं बनता है, तब तक भाग्याधीन परिचय
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