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प्रवचन- ७४
१५
मनुष्य की एक ऐसी भी भूमिका होती है कि वह सत्य को समझता हो, फिर भी आचरण नहीं कर सकता हो । सत्य को स्वीकार करना और सत्य को जीवन में जीना, दो अलग बातें हैं। जितना सत्य समझता हो, सभी सत्य को जीवन में जीनेवाला व्यक्ति वीतराग - सर्वज्ञ बने बिना नहीं रहे! अपने लिए यह सब संभव नहीं है। जो सत्य जीवन में जी सकने में अपन असमर्थ हों, उस सत्य का स्वीकार और पक्षपात तो होना ही चाहिए ।
इस बात को अब पारिवारिक जीवन में कैसे लाया जाय, यह समझाता हूँ । आपका लड़का मानता है कि परमात्मा की पूजा करनी चाहिए, सामायिकक्रिया करनी चाहिए, परन्तु वह नहीं कर पाता है, तो आप क्या करेंगे? क्या आप उसकी सच्ची मान्यता की सराहना करेंगे? नहीं न? आप तो उपालम्भ देंगे उसको ... चूँकि वह पूजा करता नहीं है, सामायिक करता नहीं है। बारबार कटु शब्दों में उसकी भर्त्सना करते हो न?
इससे आपके प्रति उसके मन में दुर्भाव पैदा होता है। आप जो पूजा, सामायिक वगैरह क्रियाएँ करते होंगे, उन धर्मक्रियाओं के प्रति भी दुर्भाव पैदा होगा। चूँकि दुनिया के लोग, धर्म करनेवालों से अच्छे व्यवहार की, सरल व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं। वे चाहते हैं कि मंदिर में जानेवाले, धर्मगुरुओं के उपदेश सुननेवाले शान्त होने चाहिए, प्रामाणिक एवं विनम्र होने चाहिए। यदि ऐसे नहीं होते हैं तो दुनिया उनकी तो निन्दा करती ही है, धर्मक्रियाओं की भी निन्दा करती है।
जो लोग, ‘धर्म उत्तम है, गुरुजन अच्छे हैं, परमात्मा की भक्ति करने जैसी है...दीन-अनाथजनों की सेवा करनी चाहिए,' ऐसा मानते हैं; उनका अनादर मत करें। अच्छी बातों का स्वीकार करनेवालों का भी जिनशासन ने मूल्यांकन किया है।
सबसे हिलमिल चलिए :
अलबत्ता, आपके हृदय में ऐसी भावना होना स्वाभाविक है कि 'मेरे घर में सभी लोग धर्म करनेवाले होने चाहिए। मेरे घर में सभी लोग सदाचारी होने चाहिए...।' आप उनको कभी - कभी मधुर शब्दों में प्रेरणा भी देते रहें, वहाँ तक तो उचित है, परन्तु आपको दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए । दुर्व्यवहार करने से परिणाम अच्छा नहीं आता है ।
संघ और समाज के लोगों के साथ भी अच्छा व्यवहार रखना चाहिए ।
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