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श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [ ५ सिंघजी से पहली भेट
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सिंधीजी से, मेरी यह एक तरहसे पहली ही भेट थी । यद्यपि इससे कोई १० वर्ष पहले ( सन् १९२१ में ) कलकत्ते ही में, जब उनके स्वर्गस्थ पिता श्रीडालचन्दजीसे कोई आधे घंटेके लिये मेरा मिलना हुआ था, तब वे भी उस समय वहां 'उपस्थित थे, परंतु उस समय उनसे सीधी बातचीत करनेका कोई प्रसंग नहीं आया था। उस प्रसंगके अगले दिन, कलकत्तेकी एक जैन सभाके सामने मेरा व्याख्यान हुआ था, जिसमें मैंने अपने कुछ राष्ट्रीय विचार प्रकट किये थे और उस समय देश में महात्माजीने असहकारका जो अभिनव कार्यक्रम आन्दोलित किया था उसमें जैन समाजको भी किस तरह सम्मीलित होना आवश्यक है, वह समझाया था । श्रीबहादुर सिंह बाबू उस उपस्थित थे, और उनके साथ, बडोदाके स्वर्गस्थ लालभाई कल्याणभाई झवेरी, मेरे एक निकट परिचित सज्जनोंमेंसे प्रमुख व्यक्ति थे, वे भी वहां हाजर थे । व्याख्यान समाप्ति के बाद सेठ लालभाईने मुझे बाबू डालचन्दजीसे मिलानेके लिये ले जाना चाहा। उन दिनों, पूनामें नूतन स्थापित भाण्डारकर रीसर्च इन्स्टीट्यूटको जैन समाजकी ओरसे ५०००० का दान दिलानेका मैंने वचन दिया था और उस कार्य में सेठ लालभाई तथा कलकत्ते सुप्रसिद्ध जौंहरी बाबू श्रीबद्रीदासजी के सुपुत्र स्व ० बाबू श्रीराजकुमार सिंहजी ने मुझे सर्वाधिक सहायता दी थी । लालभाई सेठ सिंघीजीके पिता और उनके निजके साथ भी घनिष्ठ मित्रताका संबंध रखते थे । इसलिये उनकी इच्छा हुई, कि मैं बाबू डालचन्दजीसे भी मिलूं और उनको भाण्डारकर रीसर्च इन्स्टीट्यूटका परिचय दूं एवं उसमें जो जैन साहित्यका संग्रह है तथा उसके द्वारा जैन साहित्यके प्रकाशनका जो काम होना सोचा गया है, उसका दिग्दर्शन कराऊं । दूसरे दिन रातको आठ बजे लालभाई सेठ मुझे श्रीडालचन्दजी सिंघीके पास ले गये । कोई आध घंटे तक उनसे वार्तालाप होता रहा। मैंने उक्त इन्स्टीट्यूटका यथोचित परिचय कराया और जैन साहित्यके प्रकाशन आदिका भी कुछ विचार सुनाया । साथ ही में, अहमदाबादमें अभिनव स्थापित गुजरात विद्यापीठ और तदन्तर्गत पुरातत्त्वमन्दिरका भी कुछ परिचय कराया । बाबू डालचन्दजी सिंधी बडे ज्ञानप्रेमी और विद्यानुरागी थे ही। ज्ञानप्रकाशनके कार्य में वे हमेशां ही अपनी उदारता प्रकट किया करते थे। मेरे आगमन के उपलक्ष्य में, उन्होंने भाण्डारकर इन्स्टीट्यूटके फण्डमें, उसी समय १००० ( एक हजार) रूपया देना स्वीकार कर, लालभाई सेठको उसके ले जाने की सूचना की । उस समय स्वप्नमें भी किसीको कोई कल्पना नहीं हो सकती थी, कि १० वर्ष बाद, इन बाबू डालचन्दजी सिंघीकी पुण्यस्मृति ही, मेरे अपने शेष जीवनकी समग्र साहित्योपासनाका मूलाधार निमित्त बनेगी और इनके सुपुत्र बाबू बहादुर सिंहजी ही मेरी वाङ्मयतपस्याके अनन्य . साधक - सहायक बनेंगे। सिंघीजीसे जब इस वार पहले पहल मिलना हुआ, तो उन्होंने सबसे पहले उपर्युक्त प्रसंगका स्मरण दिलाया। यों उस समय थोडीसी औपचारिक बातें हुईं और फिर स्नान - भोजनादिसे निवृत्त हो कर, कुछ आरामके बाद, दोपहर के कोई ३ - ३ ॥ बजे हम दोनों उद्दिष्ट कार्यके विषय में विचार-विनिमय करने बैठे । बड़े अच्छे ढंग से और बहुत विनयके साथ, उन्होंने अपने स्वर्गवासी साधुचरित पिताकी
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