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वर्ष
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [३
सिंघीजीका पहला आमंत्रण मार्च महिनेमें, पटनेसे कुछ जैन सज्जनोंके आग्रहपूर्ण आमंत्रण पत्र आये। वहां पर,
"पावापुरी तीर्थके विषयमें, कोर्ट में केस चल रहा था, जिसमें श्वेताम्बर और दिगम्बर पार्टियां लड रही थीं। श्वेताम्बरोंकी ओरसे, स्व. विद्यावारिधि काशी प्रसादजी जायस्वाल बेरिस्टर, कॉन्सल थे। श्वेताम्बर- दिगम्बर संप्रदायके मतभेद विषयके कुछ ऐतिहासिक प्रश्नोंकी चर्चा उन्हें मुझसे करनी थी, और इतिहासके ऐसे प्रश्नोंमें कुछ मेरी सम्मति आधारभूत समझी जाती है इसलिये उन्होंने एक 'एक्स्पर्ट' गवाहके रूपमें मेरी जबानी भी कोर्टमें लिवानी थी । सो उन्होंने अपनी पार्टीके प्रमुख व्यक्तियोंको कह कर मुझे वहां बुलानेका अत्याग्रहपूर्ण आमंत्रण भिजवाया। श्री बहादुर सिंहजी सिंधी भी उन्हीं प्रमुख व्यक्तियोंमेंसे एक थे। : श्री सिंघीजी, बहुत समयसे अपने स्वर्गवासी पुण्यश्लोक पिता श्रीडालचन्दजी सिंघीकी स्मृतिके निमित्त कोई ज्ञानप्रसारक अच्छा कार्यकेन्द्र स्थापित करनेकी बात सोच रहे थे; पर उसके लिये उन्हें कोई उपयुक्त नियामक अथवा योजककी सहायता हस्तगत हो नहीं रही थी। पण्डितवर्य श्री सुखलालजी द्वारा, सिंघीजीको मेरी अहमदाबादवाले पुरा. तत्व मन्दिरगत कार्यप्रवृत्ति और तदनन्तर परदेशगमन आदिकी सारी बातें ज्ञात होती रहती थीं। मेरा विदेशसे वापस आना सुन कर और पण्डितजीकी प्रेरणा पा कर, सिंधीजीकी मनोभावना हुई कि मैं कलकत्ता अथवा उधर ही कहीं अन्य जगह जा कर बैहूं और उनके संकल्पित कार्यका संचालन अपने हाथमें लूं। इस बारे में कुछ प्रत्यक्ष विचार-विनिमय करनेका अवसर भी पटनेमें मिल जायगा, ऐसा सोच कर मैं पटना चला गया। पर मेरे पटना पहुंचनेके पहले ही किसी अत्यावश्यक कार्यवश सिंघीजीको कलकत्ता चला जाना पडा, इससे वहां हमारी मुलाकात नहीं हो पाई। .. पटनेमें कोर्टमें साक्षी वगैरहका काम कई दिन तक चलनेवाला था और वहां पर मेरे परममित्र श्री का० प्र० जायस्वालके साथ रहनेका मुझे अकल्पित लाभ प्राप्त हो रहा था इसलिये मैंने वहां कुछ अधिक समय तक ठहरनेका कार्यक्रम सोचा । जब कोर्टमें काम नहीं होता था तो जायस्वालजीके साथ पटनेके आसपासके पुराने स्थानोंको देखनेके लिये फिरा करते थे। ५-७ दिन हम दोनोंने, खण्डगिरिवाले खारवेलके शिलालेखका जो पूरा कास्ट पटना म्युजियममें रखा हुआ है, उस परसे लेखके - सन्दिग्ध और विवादास्पद शब्दों और अक्षरोंका पाठ पढ़ने में व्यतीत किये। मेरे
सामाजिक और राष्ट्रीय प्रवृत्तिविषयक विभिन्न विचारोंको सुन कर जायस्वालजी बडे चमकते थे और मुझसे सदा आग्रहपूर्वक वारंवार कहा करते थे कि- 'आपको तो अपने परमप्रिय इतिहास और साहित्य संपादनके पवित्र कार्यके सिवा अन्य किसी प्रवृत्ति में न पडना चाहिये। जायस्वालजी नरम प्रकृतिके विद्वान् थे। सामाजिक या राष्ट्रीय उग्र वातावरणसे वे सदा दूर ही रहते थे । राजकीय अर्थात् राष्ट्रीय प्रवृत्तिमें उन्हें सच्चाईकी अपेक्षा कुटिलता ही अधिक दिखाई देती थी । अतः इस प्रवृत्तिसे उन्हें बिस्कुल प्रेम नहीं था। सामाजिक जागृतिके बारेमें वे चलती-आईको चलने देनेवाले विचारोंके थे, इससे इस विषयमें वे उदासीन रहते थे। इसलिये मुझसे उन्होंने
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