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२] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय स्थान पर, जैन ज्ञानप्रकाशक कोई संस्थाकी स्थापना करनेमें सिंघीजीको पण्डितजीकी ओरसे भी बहुत कुछ प्रेरणा मिली थी। पण्डितजीके प्रौढ पाण्डित्य और विशिष्ट व्यवहार कौशल पर सिंघीजीकी बडी श्रद्धा थी। सिंधीजीके संकल्पित कार्यका भार अपने हाथमें लेनेका जो मैंने स्वीकार किया उसमें भी पण्डितजीकी इच्छा ही बहुत कुछ प्रेरक बनी थी। मेरे निवेदन करने पर, पण्डितजी भी सिंघीजीके साथके अपने कुछ विशिष्ट मरण लिखनेको प्रवृत्त हुए हैं जो इसके साथ ही पाठकोंको पढने मिलेंगे।
विदेशयात्रासे मेरा प्रत्यागमन सन् १९२९ के डीसेंबर महिनेमें, मैं जर्मनीकी यात्रा कर वापस लौटा और
लाहोरकी काँग्रेसमें द्रष्टाके रूपमें उपस्थित हुआ। यद्यपि जर्मनी जानेमें मेरा मुख्य लक्ष्य तो था साहित्यिक कार्यके करने में कुछ विशिष्ट और अधिक क्षमता प्राप्त करनेका । लेकिन इस विषयमें तो मुझे वहां कोई अनपेक्षित और अज्ञात वस्तु प्राप्त करने जैसी दिखाई न दी । पर उस समयके वहांके समाजवादी, साम्यवादी और अराजकवादी आदि वातावरणने मेरा वह मूल लक्ष्य ही शिथिल बना दिया और मैं समाजवादी, साम्यवादी आदि विचारों और आन्दोलनोंका उत्सुक अभ्यासी बन गया । भिन्न भिन्न देशोंके, विविध प्रकारके विचारवाले अनेकानेक विद्वान् मनुष्योंके, परिचयमें आनेका मुझे वहां अत्यधिक प्रसंग मिलता रहा और इससे मेरे विचारों में वहां बहुत कुछ क्रान्ति होती गई । जीवनके बहते आते हुए प्रवाहमें बडे बडे भंवर पडने लगे। साहित्यिक संशोधन और संपादनके कार्यमें उपरतिसी होने लगी। निष्क्रिय आध्यात्मिकता
और अर्थहीन धार्मिकता पर उद्वेग होने लगा। जीवनको अब किसी दूसरी ही ओर प्रवृत्त करनेके तरंग मनमें उछलने लगे। इसी क्षुब्ध अन्तरंगके साथ, मैं जर्मनीसे यहां लौटा था और शुष्क साहित्योपासनाकी अपेक्षा किसी सजीव सामाजिक या राष्ट्रीय जागृतिकी प्रवृत्तिमें अपने भावी जीवनको संलग्न करनेकी मनमें ठान रहा था। काँग्रेससे वापस लौट कर अहमदाबाद आया और मनके नये तरंगोंके अनुसार, तदनुकूल कार्यक्षेत्रकी विचारणा करने लगा। कुछ विचार फिरसे विदेश में जानेका भी मनमें रखा हुआ था और वहीं कोई कार्यकेन्द्र-जिसका बीज मैं बर्लिनमें डाल भी भाया था-स्थापित करनेका मनोरथ कर रहा था।
लाहोर काँग्रेसके प्रस्तावके मुताबिक देश में स्वराज्यकी सिद्धिके लिये कोई जोरदार आन्दोलन खडे करनेकी तजबीज महात्माजी सोच रहे थे और देशकी हवा उससे काफी उष्मा लिये हुई थी। एक दिन यों ही महात्माजीसे मैंने अपना पुनः विदेशमें जानेका भाव प्रकट किया, तो उन्होंने कहा-'अब तो हमें देशकी स्वतंत्रताके लिये कोई जोरदार आन्दोलन शुरु करना होगा; और उसमें तुम्हारे जैसे विद्यापीठके प्रधान सेवकोंको अगुवानी लेनी होगी। ऐसे समयमें तो देश ही अपना कर्मक्षेत्र होना चाहिये, न कि परदेश' इत्यादि। महात्माजीके विचार सुन कर मैं चुप हो रहा और परदेशमें पुनः जानेके विचारको तो उसी समयसे मनसे हटाने लगा।
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