________________
२६५८
भगवती सूत्र-श. १८ उ. १ चरम अचरम
प्रथम और अप्रथम के स्वरूप को बतलाने वालो गाथा का अर्थ इस प्रकार है-जिन जीवों को जो भाव (अवस्था) पूर्व से प्राप्त है, तथा जो अनादि काल से हैं, उस भाव की अपेक्षा वह जीव, अप्रथम कहलाता है और जो भाव प्रथम बार ही प्राप्त हुआ है, उससे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ, उसकी अपेक्षा वह जीव प्रथम कहलाता है।
विवेचन-साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी, अनाहारक के समान जानना चाहिये । वह जीव पद में सिद्ध की अपेक्षा प्रथम और संसारी की अपेक्षा अप्रथम है । नैरयिक से लेकर वैमानिक तक सभी दण्डकों में प्रथम नहीं, अप्रथम है । सिद्धत्व के विषय में प्रथम हैं, अप्रथम नहीं, क्योंकि साकारोपयोग और अनाकारोपयोग विशिष्ट सिद्धत्व की प्राप्ति प्रथम ही होती है।
चरम अचरम चा or
२० प्रश्न-जीवे णं भंते ! जीवभावेणं किं चरिमे अचरिमे ? २० उत्तर-गोयमा ! णो चरिमे, अचरिमे । २१ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! गेरइयभावेणं-पुच्छा।
२१ उत्तर-गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे । एवं जाव वेमाणिए । सिद्धे जहा जीवे ।
२२ प्रश्न-जीवा णं-पुच्छा।
२२ उत्तर-गोयमो ! णो चरिमा, अचरिमा । णेरइया चरिमा वि अचरिमा वि, एवं जाव वेमाणिया । सिद्धा जहा जीवा ॥१॥
२३-आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org