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पर बंध नहीं होता, वहाँ पर उन कर्मों की सत्ता में रही हुई प्रकृतियों का जो प्रदेश संक्रमण होता है, उसे विध्यात संक्रमण कहते हैं । यह अधः प्रवृत्त संक्रमण के रुकने पर ही होता है ।
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(इ) अधः प्रवृत्त संक्रमण : ध्रुव बंधिनी प्रकृतियों का बंध होने पर तथा स्व स्वभाव बंध योग्य परावर्तन प्रकृतियों के बंध और अबंध की दशा में जो स्वभावतः प्रकृतियों के प्रदेशों का संक्रमण होता रहता है, वह अधः प्रवृत्त संक्रमण है ।
(ई) गुण संक्रमण : अपूर्व करणादि परिणामों का निमित्त पाकर प्रति समय जो प्रदेशों का असंख्यात गुण श्रेणी रूप संक्रमण होता है, उसे गुण संक्रमण कहते हैं ।
( उ ) सर्व संक्रमण : विवक्षित कर्म प्रकृति के सभी प्रदेशों का एक साथ पर प्रकृति रूप संक्रमण होना सर्व संक्रमण होता है । यह उद्वेलन, विसंयोजन और क्षपणकाल में चरम स्थिति खंड के चरम समयवर्ती प्रदेशों का ही होता है, अन्य का नहीं ।
इसका सामान्य नियम यह है कि जिस प्रकृति का जहाँ तक बंध होता है उस प्रकृति का अन्य सजातीय प्रकृति संक्रमण वहीं तक होता है । जैसे असातावेदनीय का बंध छठे गुणस्थान तक व साता वेदनीय का बंध तेरहवें गुणस्थान तक होता है। अतः साता वेदनीय का असातावेदनीय में संक्रमण छठे तथा असातावेदनीय का साता वेदनीय में संक्रमण तेरहवें गुणस्थान तक होता है ।
ऊपर वर्णित संक्रमण के चारों भेदों का संबंध संक्लेश्यमान एवं विशुद्धयमान अर्थात् पाप व पुण्य प्रवृत्तियों से है। जैसे-जैसे वर्तमान में परिणामों में विशुद्धि आती जाती है, वैसे-वैसे पूर्व में बंधी हुई पाप प्रवृत्तियों का अनुभाग व स्थिति स्वतः घटती जाती है एवं पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग (रस) स्वतः बढ़ता जाता है। इसके विपरीत जैसे-जैसे परिणामों में मलिनता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे स्थिति बढ़ती जाती है एवं पाप प्रकृतियों का अनुभाग पहले से अधिक बढ़ता जाता है और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग घटता जाता है । इस प्रकार प्रतिक्षण पूर्व में बंधे हुए समस्त कर्मों के स्थिति व अनुभाग बंध में घट-बढ़ निरन्तर चलती रहती है। एक क्षण
प्राक्कथन
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