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अशुभता आपेक्षिक होती है। एकान्तरूप से किसी वर्ण को शुभ एवं अशुभ नहीं कहा जा सकता है। जो वर्ण किसी के लिए किसी समय शुभ होता है वही दूसरे के लिए अथवा अन्य समय में उसी के लिए अशुभ माना जाता है।
गोत्र कर्म का सम्बन्ध जन्म से प्राप्त गोत्र से नहीं और न ही उच्च एवं नीच कुल में जन्म लेने से है। वस्तुतः सदाचरण ही उच्च गोत्र का एवं दुराचरण ही नीच गोत्र का द्योतक है। सामान्यतया उत्तमकुल में जन्म लेना उच्च गोत्र एवं लोकनिंद्य कुल में जन्म लेना नीच गोत्र माना जाता है, किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र में विद्यमान हरिकेशी मुनि का प्रकरण इस तथ्य को स्पष्ट प्रतिपादित करता है कि लोकनिंद्य या नीच कुल में जन्म लेने से कोई नीचगोत्री नहीं होता, अपितु अपने निंद्य आचरण से वह नीच गोत्री होता है तथा साधु बन जाने पर वही उच्चगोत्री हो जाता है। लोढ़ा साहब के अनुसार व्यक्तित्व के मोह या अहंभाव रूप मद से ग्रस्त व्यक्ति हीनता-दीनता-दासता एवं परतन्त्रता में आबद्ध रहता है। दासता या परतन्त्रता में आबद्ध रहना ही नीचगोत्र का उदय है तथा इस दासता पर विजय प्राप्त करना एवं इससे स्वतंत्र होना ही उच्चगोत्र का प्रतीक है।
लोढ़ा साहब लिखते हैं-भूमि, भवन आदि जड़, विनाशी एवं पर वस्तुओं के आधार पर अपना मूल्यांकन करना दीनता का सूचक है। नीच गोत्र का द्योतक है तथा भोग से ऊपर उठना अर्थात् साधुत्व का होना उच्चगोत्र है।
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन, असद्गुणों का प्रकाशन- ये नीच गोत्र के बंध हेतु हैं। इसके विपरीत पर–प्रशंसा, आत्मनिन्दा, दूसरों के सद्गुणों का प्रकाशन एवं निरभिमानता उच्चगोत्र के बंध हेतु हैं।
गोत्र कर्म के साथ मद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जो रूप, धन, बल, तप, श्रुत आदि का मद करता है वह नीच गोत्र का उपार्जन करता है तथा जो इनका मद नहीं करता है वह उच्चगोत्र का उपार्जन करता है। गोत्र कर्म का जब पूर्णक्षय हो जाता है तो अगुरुलघु गुण प्रकट होता है। गोत्रकर्म पुद्गलविपाकी, भवविपाकी एवं क्षेत्रविपाकी नहीं है, अपितु जीवविपाकी है, जीव विपाकी होने से इसका सम्बन्ध जीव के भावों से है, शरीर की
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