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होती है। ज्ञान का दुरुपयोग (विषय-भोग) ही ज्ञान का अनादर है। यह चारित्र मोहनीय की वृद्धि का हेतु है। पाँच ज्ञान में महत्त्व श्रुतज्ञान का ही है। श्रुतज्ञान के ज्ञानरूप होने से मतिज्ञान और अवधिज्ञान ज्ञान रूप होते हैं। श्रुत के अज्ञान रूप होने से मतिज्ञान व अवधि ज्ञान, अज्ञान रूप होते हैं। मतिज्ञान इन्द्रिय ज्ञान है। इन्द्रिय ज्ञान के प्रभाव से भोगेच्छा जागृत होती है। भोगवती बुद्धि इस प्रभाव को पुष्ट करती है, यही मति अज्ञान है। विवेकवती बुद्धि इस प्रभाव को क्षीण करती है, यह मतिज्ञान है। विवेक का सम्बन्ध श्रुतज्ञान से है। विवेक है- निज ज्ञान, सहज-स्वाभाविक, सत्य-सनातन ज्ञान, जो मानव मात्र को सदैव प्राप्त है। विवेक आत्मा का गुण है, किसी कर्म की देन एवं फल नहीं है। ज्ञान-अज्ञान का जीवन पर प्रभाव
__ महत्त्व या मूल्य उसी का है, जिससे जीव का हित हो। यही बात ज्ञान पर भी चरितार्थ होती है। जिस ज्ञान से अपना हित हो, वही ज्ञान है, जिस ज्ञान से अहित हो, वह अज्ञान है। जिस ज्ञान का अनुसरण करने से परिणाम में दुःख मिले, वह ज्ञान अहितकर है। वह अज्ञान है। यहाँ अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है। प्रत्युत भ्रान्त ज्ञान है। जैसे यह मानना कि बाह्य पदार्थ, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि सुख-दुःख के कारण हैंयह ज्ञान भ्रान्त ज्ञान है, अज्ञान है, क्योंकि वस्तुतः बाह्य पदार्थ या घटनाएँ सुख-दुःख के कारण नहीं हैं। यदि ये सुख-दुःख के कारण होते, तो सुखद वस्तु सदा सुख ही देती रहती, परन्तु ऐसा नहीं होता है। उदाहरणार्थ ताजमहल देखने के सुख को ही लें, एक व्यक्ति ताजमहल के सौन्दर्य की प्रशंसा पढ़कर या सुनकर, हजारों रुपया व्यय कर विदेश से भारत आया और आगरा गया, वहाँ ताजमहल देखा और उसके सौन्दर्य को देखकर बड़ा हर्षित हुआ। परन्तु वह हर्ष या सुख कुछ ही घंटों में क्षीण होता हुआ खत्म हो गया। अब उसे ताजमहल देखने में कोई रस या सुख नहीं रहा और वह वहाँ से जाने के लिए आतुर होने लगा । यहाँ विचारणीय बात यह है कि यदि ताजमहल देखने में कोई रस या सुख होता, तो ताजमहल भी वही है व वैसा का वैसा है, व्यक्ति भी वही है, आँखों में देखने की शक्ति भी ज्यों की त्यों है। अर्थात् दृश्यवस्तु, वस्तु को देखने वाला व्यक्ति, देखने की शक्ति आदि सब ज्यों की त्यों ही है। अतः सुख भी ज्यों
ज्ञानावरण कर्म