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अभिमान तभी तक बराबर बना रहता है जब तक साधक को यह भान होता है कि मैं संयमी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, क्षमावान हूँ। जब तक व्यक्ति अपने को गुणों का स्वामी मानता है, अपनी देन मानता है तब तक उसमें अहंभाव ज्यों का त्यों बना रहता है। जब तक अहं भाव रहता है तब तक साधन और साध्य में भिन्नता रहती है। गुण की साधक के जीवन में अभिन्नता हो जाने पर अहंभाव (गुण का अभिमान) मिट जाता है और गुण पूर्ण रूप में प्रकट हो जाता है। हीनता-दीनता और गोत्र कर्म
अब प्रश्न यह है कि हीनता व दीनता का अनुभव कौन करता है? उत्तर में कहना होगा कि जो अपना मूल्यांकन वस्तु, व्यक्ति (परिजन दास, दासी) परिवार, परिजन परिस्थिति आदि के आधार पर करता है, जो भूमि-भवन, धन-धान्य, नौकर-चाकर आदि के होने से तथा बल, रूप, विद्या, प्रशंसा, सम्मान आदि से अपने को बड़ा मानता है, अभिमान करता है और इनके न होने से अपने को छोटा मानता है उसी में हीनता व दीनता के भाव उत्पन्न होते हैं। जब वह इन सब बातों में अपने से कम सम्पत्ति व सामग्री वालों को देखता है तो उसमें अहंभाव पैदा होता है और वह मान के नशे में अपना स्वरूप भूल जाता है। परन्तु जब वह अपने से अधिक धनवान, विद्वान्, बलवान, सम्पन्न व्यक्तियों को देखता है तो उसमें अपने भीतर हीनता-दीनता का अनुभव होता है। अथवा जब इन वस्तुओं भूमि, भवन, विद्या, बुद्धि, बल, रूप, सम्मान आदि की कमी आ जाती है या नष्ट हो जाते हैं तो वह अपने को दीन-हीन अनुभव करता है अथवा इनकी क्षति, कमी या नाश के भय से उसे सदैव दीनता-हीनता का दुःख सताता रहता है। इस प्रकार वह सदैव दीनता और अभिमान की अग्नि में जलता रहता है।
तात्पर्य यह है कि वस्तु, विद्या, बल, रूप आदि पर एवं विनाशी वस्तुओं के आधार पर अपने को बड़ा मानना ही हीनता का आह्वान करना है। विनाशी वस्तुओं के आधार पर अपने को बड़ा मानने वाला व्यक्ति अपना मूल्य खो देता है, कारण कि उसकी दृष्टि में मूल्य वस्तुओं का, पर का ही रह जाता है। उसका उनके साथ इतना तादात्म्य एवं अहंभाव हो जाता है कि वस्तुओं के नाश से वह अपना नाश, उनकी उपलब्धि में अपना
गोत्र कर्म
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