Book Title: Bandhtattva
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 313
________________ शरीर, इन्द्रिय आदि सामग्री व सामर्थ्य का उपयोग दया, दान, सेवा आदि सर्वहितकारी सद्प्रवृत्तियों में करना इनका सदुपयोग है। इससे उदयमान राग व कषाय गलता है, विषय सुखों की दासता से छुटकारा मिलता है और उत्कृष्ट भोगों की उपलब्धि होती है अर्थात् उसे किसी भी वस्तु की आवश्यकता व अभाव का अनुभव नहीं होता है । वह सदैव प्रसन्न एवं ऐश्वर्य सम्पन्न रहता है। वह संसार के पीछे नहीं दौड़ता है, संसार उसके पीछे दौड़ता है। आशय यह है कि अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियों के उदय का सदुपयोग दोषों के त्याग में है और पुण्य प्रकृतियों से प्राप्त सामग्री व सामर्थ्य का सदुपयोग सर्वहितकारी प्रवृत्ति करने में है । इनके सदुपयोग से निर्दोषता व वीतरागता की उपलब्धि होती है। इनका उपयोग विषय - कषाय के सेवन में करना इनका दुरुपयोग है जो समस्त दुःखों व संसार - परिभ्रमण का कारण है। अघाती कर्मों का सदुपयोग - दुरुपयोग उपयोगकर्ता के भावों पर निर्भर करता है, इन कर्मों के उदय पर नहीं । आशय यह है कि अघाती कर्मों की पुण्य-पाप प्रकृतियाँ क्रमशः आत्म-विकास व ह्रास की द्योतक हैं। ये स्वयं आत्म-विकास व हास नहीं करती हैं, अपितु कार्य-सिद्धि में क्रिया व करण का काम करती हैं। क्रिया व करण गुण-दोष रहित होते हैं। इनमें जो गुण-दोष प्रतीत होते हैं, वे कर्ता के शुभाशुभ भावों व भावों के द्वारा की गयी शुभाशुभ क्रियाओं के सूचक होते हैं। कार्यसिद्धि में कर्त्ता के भावों को क्रियात्मक रूप देने के लिये क्रिया आवश्यक है व क्रिया के लिये साधन-सामग्री का सहयोग भी अपेक्षित होता है। अतः मुक्ति - प्राप्ति में औदारिक शरीर, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्य गति, उच्च गोत्र, सुभग, आदेय आदि पुण्य प्रकृतियों का उदय आवश्यक है। पुण्य प्रकृतियों के उदय का अभाव आत्म-विकास में कमी का सूचक है। यह नियम है कि जितना - जितना आत्म-विकास होता जाता है, उतना - उतना पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का उदय बढ़ता जाता है। दोषों का, पापों का आंशिक त्यागकर देशव्रती श्रावक होने पर स्वतः दुर्भग, अनादेय, अयशकीर्ति आदि पाप प्रकृतियों का उदय रुककर सुभग, आदेय, यशकीर्ति आदि पुण्य प्रकृतियों का उदय होने लगता है। जब आत्मा क्षपक श्रेणी की साधना से अपना पूर्ण आत्म-विकास कर वीतराग हो जाती है, तब समस्त पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग स्वतः उत्कृष्ट हो जाता आत्म-विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप 234

Loading...

Page Navigation
1 ... 311 312 313 314 315 316 317 318