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अहितकर व घातक नहीं है। अघाती कर्मों की 101 प्रकृतियों में से 85 प्रकृतियों की सत्ता चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान में द्विचरम समय तक रहती है जिनमें असातावेदनीय, नीच गोत्र, अनादेय, अयशकीर्ति आदि पाप प्रकृतियों की सत्ता भी है। फिर भी ये केवलज्ञान, केवलदर्शन में बाधक नहीं हैं। इसी प्रकार अघाती कर्मों के उदय से प्राप्त शरीर-इन्द्रिय आदि भौतिक सामग्री व सामर्थ्य भी स्वयं किसी जीव के लिए हितकर–अहितकर नहीं है। हितकर–अहितकर है इनका सदुपयोग-दुरुपयोग । अघाती कर्मों से प्राप्त सामग्री व सामर्थ्य का उपयोग विषय-कषाय में, भोग-वासना की पूर्ति में करना इनका दुरुपयोग है जो अहितकर है तथा इनका उपयोग दोषों के त्याग एवं सद्प्रवृत्तियों में करना सदुपयोग है, जो हितकर व कल्याणकारी है।
अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियों के उदय से प्रतिकूल एवं दुःखद परिस्थिति का निर्माण होता है जो आध्यात्मिक विकास की कमी का अर्थात् विषय-कषाय के विकारों के उदय का सूचक है। अतः दुःखद परिस्थिति से छुटकारा तभी संभव है जब इन दोषों का त्याग किया जाय यथा-प्रतिकूल परिस्थिति में अशांति व तनाव का दुःख कामना से, हीनभाव व दीनभाव का दुःख मद-मान से, वैरभाव का दुःख माया व द्वेष से, दरिद्रता का दुःख लोभ से, पराधीनता का दुःख ममता से, अस्वस्थता का दुःख असंयम से, भय, चिन्ता, शोक आदि का दुःख भोगों के सुखों के प्रलोभन से उत्पन्न होता है। अतः कामना, मान, माया, लोभ, ममता, असंयम, स्वार्थपरता एवं विषय सुखों के प्रलोभन के त्याग से इन दुःखों से मुक्ति मिल जाती है और शांति, ऐश्वर्य, मृदुता माधुर्य, प्रीति, स्वाधीनता, स्वस्थता, उदारता, निश्चितता, प्रसन्नता आदि आध्यात्मिक सुखों का अनुभव होता है तथा प्राण, बल, बुद्धि, मन, मस्तिष्क आदि की शक्ति में वृद्धि होती है। अतः प्रतिकूल परिस्थिति व दुःखों से मुक्ति पाने का उपाय दोषों का त्याग करना है। प्रतिकूल परिस्थिति से दुःखी होकर आर्तध्यान करना, इन दुःखों से मुक्ति पाने के लिए इन दुःखों के कारणभूत कामना, ममता, अहंता आदि दोषों को न मिटाकर, बाह्य सामग्री से मिटाने का प्रयास करना परिस्थिति का दुरुपयोग है जो दुःख की परंपरा को बढ़ाने वाला है। इसी प्रकार अघाती कर्मों की पुण्य प्रकृतियों से प्राप्त अनुकूल परिस्थिति का अर्थात्
आत्म-विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप
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