________________
आत्म-विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप
पूर्व लेखों में यह कह आए हैं कि अघाती कर्मों की पुण्य प्रकृतियाँ वीतरागता प्राप्ति में बाधक नहीं हैं। इससे यह जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि क्या अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियाँ वीतरागता में बाधक हैं? यदि बाधक हैं तो इन्हें अघाती कैसे कहा गया?
जिससे आत्मा पवित्र हो, शुद्ध हो ऐसा विशुद्धयमान चढ़ता परिणाम पुण्य तत्त्व है। आत्मा का पवित्र होना आत्मा का विकास होना है। आत्मा की पूर्ण विकसित अवस्था ही मोक्ष है। पुण्य की यह परिभाषा पुण्य तत्त्व की दृष्टि से है, पुण्य कर्म की दृष्टि से नहीं है। पुण्य तत्त्व का सम्बन्ध आत्मा की पवित्रता से,आत्म गुणों के प्रकट होने से है और पुण्य कर्मों का सम्बन्ध पुण्य तत्त्व के फल के रूप में मिलने वाले शरीर, इन्द्रिय, मन, मस्तिष्क आदि सामग्री व सामर्थ्य की उपलब्धि से है। संसारी अवस्था में पुण्य तत्त्व आत्म-विकास का और पुण्य कर्म भौतिक विकास का सूचक है। इन दोनों विकासों में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह नियम है कि प्राणी का जितना आध्यात्मिक विकास होता जाता है उतना ही भौतिक विकास भी स्वतः होता जाता है।
पुण्य तत्त्व से विपरीत पाप तत्त्व है। जिससे आत्मा का पतन हो, आत्म गुणों का हास हो, हनन हो, आत्मा की अशुद्धि बढ़े ऐसे संक्लेश्यमान, गिरते परिणामों को पाप तत्त्व कहा गया है। पाप तत्त्व से दो कार्य होते हैं- 1. आत्मा के ज्ञान, दर्शन, ऋजुता, मृदुता आदि गुणों का घात अर्थात् हास होता है अर्थात् इन्द्रिय, प्राण आदि की उपलब्धि में, इनके अनुभाग में कमी आती है। इन्हें ही कर्म सिद्धान्त में अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियाँ कहा गया है।
आध्यात्मिक विकास-हास का सम्बन्ध घाती कर्मों के क्षय, उपशम व क्षयोपशम से है। समस्त घाती कर्म-प्रकृतियों का बंध, सत्ता व उदय पाप रूप ही है। इन घाती कर्मों की कोई भी प्रकृति पुण्य रूप नहीं है। आत्म-विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप
231