Book Title: Bandhtattva
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 308
________________ कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना बंध है। सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति व अनुभाग का बढ़ना उत्कर्षण है एवं स्थिति व अनुभाग का कम होना अपकर्षण है और अन्य प्रकृति रूप परिणमन या रूपान्तरण होना संक्रमण है। संक्लेश परिणामों से पाप प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग का उत्कर्षण, पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का अपकर्षण एवं पुण्य प्रकृतियों का अपनी सजातीय पाप प्रकृतियों में संक्रमण होता है। विशुद्ध परिणामों से पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का उत्कर्षण, पाप प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग का अपकर्षण एवं पाप प्रकृतियों का अपनी सजातीय पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है अर्थात् विशुद्ध भावों से पुण्य कर्मों का उपार्जन होता है, साथ ही सत्ता में स्थित पाप-प्रकृतियों का सजातीय पुण्य-प्रकृतियों में रूपान्तरण होता है जिससे पुण्य कर्मों में अभिवृद्धि होती है। बंधुक्कट्टणकरणं सगसगबंधोत्ति लेदिणियमेण। संकमणं करणं पुण सगसगजादीण बंधोत्ति।। -गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 444 अर्थात बंधकरण और उत्कर्षण करण ये दोनों अपनी-अपनी प्रकतियों की बंधव्युच्छित्ति पर्यन्त होते हैं और अपनी-अपनी जाति की प्रकृतियों की जहाँ बंध व्यच्छित्ति होती है वहाँ तक इनका संक्रमण होता है। __ ऊपर कर्मों के बंध, उदय, उदीरणा व सत्ता, उत्कर्षण, अपकर्षण, अपवर्तन एवं संक्रमण के परिप्रेक्ष्य में पुण्य-पाप का विवेचन किया गया है। उसी पर यहाँ घाती-अघाती कर्म प्रकृतियों की दृष्टि से विचार किया जा रहा है। आत्मा के विकास व हास का आधार आत्मा के गुणों का विकास एवं हास है। जिन कर्म-प्रकृतियों से आत्मा के गुणों का ह्रास (हानि) हो, उन्हें घातिकर्म कहा गया है और जिन कर्म-प्रकृतियों से आत्मा के गुणों का अंशमात्र भी घात नहीं हो, उन्हें अघाती कर्म कहा गया है। घाती कर्म ही आत्मा के गुणों के घातक हैं। अतः साधक के लिये इनका ही क्षय करना आवश्यक है। अघाती कर्म प्रकृतियों की सत्ता का पूर्ण क्षय क्षपक श्रेणी, वीतरागता एवं केवलीसमुदघात से भी नहीं होता है। ज्ञानावरण की 5, दर्शनावरण की 9, मोहनीय की 28 एवं अंतराय कर्म की 5 ये कुल 47 कर्म प्रकृतियाँ घाती हैं। ये ही आत्मा के गुणों का घात करने वाली हैं। अतः ये सब पाप प्रकृतियाँ आत्मा के लिये घोर अहितकारी कर्म सिद्धान्त और पुण्य-पाप 229

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