Book Title: Bandhtattva
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 307
________________ बिसयरिवओ च चरिमे तेरस मणुयतसतिग जनाइज्जं।। सुभगजिणुच्चं पणिदिय तेरस यायायआएगयरछेओ।। -कर्मग्रंथ भाग 2, गाथा 31-33, गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा 340-341 गाथार्थ- सयोगी और अयोगी गुणस्थानं के द्विचरम समय तक 85 प्रकृतियों की सत्ता रहती है। उसके बाद देवद्विक, विहायोगति द्विक, गट द्विक, आठ स्पर्श, वर्ण, रस, शरीर, बंधन और संघातन इन सबकी पाँच-पाँच, निर्माण, संहनन षट्क, अस्थिरषट्क, संस्थानषट्क, अगुरुलघुचतुष्क, अपर्याप्त, साता अथवा असातावेदनीय, प्रत्येकत्रिक, उपांगत्रिक, सुस्वर और नीच गोत्र इन 72 प्रकृतियों का क्षय चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में होता है। इसके बाद मनुष्यत्रिक, त्रसत्रिक, यश-कीर्ति, आदेय, सुभग, जिननाम, उच्चगोत्र, पंचेन्द्रिय जाति, साता अथवा असाता वेदनीय, इन तेरह प्रकृतियों की सत्ता का क्षय चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय में होने से आत्मा कर्मरहित होकर मुक्त हो जाता है। तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान में पूर्वोक्त 42 प्रकृतियों का उदय होता है। इन प्रकृतियों में अघाती कर्मों की पाप व पुण्य दोनों प्रकार की प्रकृतियों का उदय है। इससे यह सिद्ध होता है कि मुक्ति के हेतु वीतरागता की उपलब्धि में अघाती कर्मों की पुण्य-पाप प्रकृतियों का उदय बाधक नहीं है। इसी प्रकार चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान में अघाती कर्मों की 85 प्रकृतियों की सत्ता द्विचरम समय तक रहती है। इन 85 प्रकृतियों में वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की पाप प्रकृतियाँ, असातावेदनीय, नीच गोत्र एवं अनादेय, अयशकीर्ति आदि की सत्ता भी है तथा पुण्य की 42 प्रकृतियों में से देवायु, तिर्यंचायु, आतप, उद्योत इन चार प्रकृतियों को छोड़कर शेष 38 प्रकृतियों की सत्ता है। जब वेदनीय, नाम, गोत्र कर्मों की पाप प्रकृतियों की सत्ता भी वीतरागता की उपलब्धि व शुक्ल ध्यान में बाट क नहीं है तब पुण्य प्रकृतियों की सत्ता वीतरागता में व शुक्ल ध्यान में बाघ क होने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। अतः “पुण्य कर्म वीतरागता व मुक्ति में बाधक है' यह मान्यता निराधार है। उत्कर्षण-अपकर्षण-संक्रमण कम्माण सम्बन्धो बंधो, उक्कट्टणं स्वे वड्डी। संकमणमणत्थगदी खणी ओकट्टणं णाम।। -गोम्मटसारकर्मकाण्ड,438 228 कर्म सिद्धान्त और पुण्य-पाप

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