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किसी नगर में अधिक चिकित्सालय, न्यायालय, पागलखाने, अनाथालय होना भौतिक विकास नहीं है, अपितु जिस नगर में चिकित्सालय, न्यायालय, पागलखाने, अनाथालय आदि भले ही हों, परन्तु वहाँ नागरिकों को उनकी आवश्यकता ही नहीं हो अथवा कम से कम आवश्यकता हो, यह भौतिक विकास है। यह तभी संभव है जब उस नगर के नागरिक रुग्ण न हों, अपराधी न हों, विक्षिप्त मस्तिष्क न हों, भिखारी न हों। ऐसा तभी हो सकता है जब वहाँ के नागरिक संयमी हों, नैतिक हों, विज्ञ हों, संपन्न हों। संपन्न वही है जो अभावग्रस्त नहीं है। अभावग्रस्त होना दरिद्रता का सूचक है। अभावग्रस्त वही है जिसकी इच्छाओं की पूर्ति न हो। विज्ञान प्रदत्त भोग्य वस्तुएँ एवं इनके विज्ञापन इच्छाओं के उत्प्रेरक होते हैं। जिससे अनेक इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं और उन सब की पूर्ति न होने से व्यक्ति अभाव की अग्नि में जलता रहता है।
आज सामान्य व्यक्ति के पास भी खाने, पीने, देखने, सुनने के साध न प्राचीन काल के सम्राटों एवं चक्रवर्तियों से भी सैकड़ों गुना अधिक हैं जैसे टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन, फ्रीज, बल्ब, पंखे, वाशिंग मशीन आदि तथा सैकड़ों प्रकार की मिठाई, खटाई, नमकीन आदि। फिर भी आज का मानव अपने आपको भयंकर अभाव ग्रस्त पाता है। अभाव स्वभाव से ही किसी को भी इष्ट नहीं है। वास्तविक भौतिक विकास वह है जिसमें अभाव का अभाव हो जाय। अभाव का अभाव होना सच्ची समृद्धि है। अभाव का अभाव उसी के होता है, जिसे अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये और जो कुछ भी अपने पास है उसे सर्व हितकारी प्रवृत्ति में लगाने में प्रसन्नता का अनुभव करता है। भौतिक उन्नति उसी की होती है जो सर्वहितकारी दृष्टि से प्रवृत्ति करता है और अपने विषय भोगों का त्याग करता है। श्रेष्ठ-सेठ वही है जो किसी से कुछ मांगता नहीं है, अपेक्षा नहीं रखता है प्रत्युत अपने पास जो है उसे सहर्ष संसार के भेंट करता है। संक्षेप में कहें तो उदारता एवं मानवता से ही मानव का आत्मिक एवं भौतिक विकास होता है। भोग भोगना पशु का लक्षण है। कारण कि भोग में आसक्त प्राणी पराधीनता में आबद्ध होता है, वह स्वाधीनता के सच्चे सुख का आस्वादन नहीं कर सकता। सरलता, विनम्रता, दयालुता, वत्सलता, सज्जनता, आत्मीयता, सहृदयता, उदारता आदि सर्व दिव्य गुण मानवता के ही रूप हैं। इन गुणों
आत्म-विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप
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