Book Title: Bandhtattva
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 305
________________ योगों से होता है, यथा अप्पयरपयडिबंधी उक्कडजोगी व अन्निपज्जतो। कुणइ परमुक्कोसं जहन्नयं, तस्य वच्चाओ।। -पंचम कर्मग्रन्थ,89 उक्कड-जोगो अण्णी, पज्जतो पयडिबंधमप्पदरो। कुणदि पदेसुक्कर, जल्ण्णये जाण विवरीय।। __-गोम्मटसार, कर्मकांड,210 अर्थ- अल्पतर प्रकृतियों का बंध करने वाला, उत्कृष्ट योगधारक और पर्याप्त संज्ञी जीव उत्कृष्ट प्रदेश बंध करता है तथा इसके विपरीत अर्थात् बहुत प्रकृतियों का बंध करने वाला, जघन्य योगधारक, अपर्याप्त जीव जघन्य प्रदेश बंध करता है। प्रदेश बंध मुख्यतः योगों से होता है। इस बंध में संक्लेश-विशुद्धि का विशेष स्थान नहीं है और किसी भी पुण्य व पाप कर्म की प्रकृतियों के प्रदेश बंध के न्यूनाधिक होने का इनके अनुभाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जैसे कोई मधुर या कटु वस्तु बड़ी हो या छोटी, हो, इससे इसके रस या स्वाद में कोई अंतर नहीं होता है। इसी प्रकार पुण्य-पाप की किसी प्रकृति के प्रदेश कितने ही कम हों या अधिक हों, इससे उसके फल पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है। इससे यह फलित होता है कि मन, वचन, काया के योग अर्थात् इनकी प्रवृत्ति कितनी ही न्यून व अधिक हो इससे प्रदेशों का न्यूनाधिक बंध तो होता है, परन्तु उस बंध से जीव को हानि-लाभ नहीं होता है। जीव का हित-अहित नहीं होता है। जीव का हित-अहित का सम्बन्ध अनुभाग से है और अनुभाग बंध का सम्बन्ध कषाय की मंदता-वृद्धि से है, कहा भी हैपरमाणूणं बढ़त्तमप्पत्तं वा अणुभागवइद्धिसणीणं ण कारणमिदि। -कसाय पाहुड -जयधवलटीका पुस्तक 5 पृ. 339 | अर्थात् कर्म परमाणुओं का बहुत्व या अल्पत्व अनुभाग की वृद्धि और हानि का कारण नहीं है। उदय-कर्मों का फल भोगना उदय है। मुक्ति प्राप्त करने वाले केवलज्ञानी जीवों के 13वें गुणस्थान में 42 एवं 14 वें गुणस्थान में 12 प्रकृतियों का उदय रहता है, यथा 226 कर्म सिद्धान्त और पुण्य-पाप

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