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तिव्वो असुट्युषणं संकेसविमोठिओ विवज्जयउ।
मंदरसो.....-पंचम कर्मग्रन्थ, 63 अर्थात 42 पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग उत्कृष्ट विशुद्धि गणवाले जीवों के होता है और 82 पाप प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि जीवों के होता है। आतप, उद्योत, तिर्यंचायु, मनुष्यायु इन चार पुण्य प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष 38 पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध सम्यग्दृष्टि जीवों के ही होता है, मिथ्यात्वी जीवों के नहीं। इन 38 प्रकृतियों में से देवायु का अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती के, मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण इन 5 प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध अनन्तानुबंध |ी की विसंयोजना करते हुए अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में सम्यग्दृष्टि रहने वाले जीव के ही होता है। शेष 32 पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध चारित्र की क्षपक श्रेणी करने वाले साधक के केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न होने के अंतमुहूर्त पूर्व ही होता है। यथा
विउव्विसुराखरदुगं सुखगइवन्नचउतेयजिणयायं। समचउपरघातसदसपणिदिसासुच्च खवगा उ।।
-पंचम कर्मग्रन्थ,67 अर्थ- वैक्रियद्विक, देवद्विक, आहारक द्विक, शुभ विहायोगति, वर्णचतुष्क, तेजसचतुष्क, तीर्थकर नामकर्म, सातावेदनीय, समचतुरस्र संस्थान, पराघात, त्रसदशक, पंचेन्द्रिय जाति, उच्छवास नाम और उच्च गोत्र का उत्कृष्ट अनुभागबंध क्षपक श्रेणी करने वाले ही करते हैं।
इन 32 पुण्य प्रकृतियों का यह उत्कृष्ट अनुभाग बंध उसी भव में मुक्ति प्राप्त करने वाले जीव ही करते हैं। उनका यह अनुभागबंध मुक्ति-प्राप्ति के अंतिम क्षण तक (दो समय पूर्व तक) उत्कृष्ट ही रहता है, जैसाकि कहा है- सुहाणं पयडीणं विसोहिदो केवलिसमुग्घादेण जोगणिरोहण वा अनुभागघादो णत्थि ति जाणवेदि। खीणकसाय- संजोगीसु ट्ठिदि अणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुकस्साणुभागो होदि णत्थि अत्थावतिसिद्धं (धवलपुस्तक 12 पृष्ठ 14) अर्थात् शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योग-निरोध से नहीं होता। क्षीण कषाय और सयोगी केवली गुणस्थानों में स्थितिघात व अनुभागघात के होने पर
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कर्म सिद्धान्त और पुण्य-पाप