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गोत्र कर्म के क्षय से अगुरुलघु गुण प्रकट होता है। अतः गोत्र कर्म गुरुत्व-लघुत्व भाव का सूचक है अर्थात् अपने को छोटा-बड़ा मानना, दीन-हीन मानना गोत्र कर्म है जो संतति-क्रम से सतत प्रवाहमान है।
स्वाभाविक गुणों के आधार पर सब जीव समान हैं। ज्ञान, दर्शन आदि स्वाभाविक गुणों में किसी जीव में अन्तर नहीं है। अन्तर इन गुणों के प्रकटीकरण में है। अतः प्राणी अपने दोषों का त्याग करने का पुरुषार्थ कर जिस क्षण चाहे उसी क्षण इन गुणों को प्रकट कर सकता है। उस शुद्ध निर्मल स्वभाव में गुरुत्व-लघुत्व का भाव नहीं होता है, अगुरुलघुत्व अवस्था रहती है। जितनी-जितनी नीच गोत्र कर्म की कमी या क्षय होता जाता है।
आशय यह है कि अपने को बाह्य जाति, कुल, बल, तप, श्रुत (ज्ञान) आदि में उत्कृष्ट, श्रेष्ठ या विशिष्ट मानना और दूसरों को निकृष्ट, हीन व नीचा मानना विशिष्टता नहीं अशिष्टता है। इसके विपरीत अपने को अयोग्य, असमर्थ, निकृष्ट एवं हीन मानना विनम्रता नहीं दीनता है, हीनभाव है। महानता है अपने में अभाव का अनुभव न होना, स्वभाव में स्थित रहना और विनम्रता है निरभिमानता होना। अतः जो अपने को न तो विशिष्ट, उत्कृष्ट या महान् मानता है और न ही निकृष्ट एवं दीन मानता है, वह उच्च गोत्रीय है। गोत्रकर्म : जीवविपाकी
गोत्रकर्म पुद्गलविपाकी, भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी नहीं है, जीवविपाकी है। पुद्गल विपाकी न होने से इसका सम्बन्ध सुन्दर, असुन्दर शरीर से नही है, भव विपाकी न होने से इसका सम्बन्ध किसने कहाँ जन्म लिया, किस व्यक्ति, घर, आर्य-अनार्य किस देश में जन्म लिया, इससे नहीं है। जीव विपाकी होने से जीव के भावों से संबंधित है। वर्तमान में गोत्र कर्म को बाह्य जाति-कुल से जोड़ दिया गया है। यह कर्म-सिद्धान्त एवं आगम सम्मत नहीं है। जैन धर्म में कर्म के अनुसार ब्राह्मण आदि वर्ण माने हैं- जन्मजात वर्ण, कुल नहीं माने हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जातियां, सूर्यवंश, चंद्रवंश, सिसोदिया आदि कुल मानव निर्मित हैं, कृत्रिम हैं, विनाशी हैं। अतः कोई भी जाति व कुल न ऊँचा है और न नीचा । न कोई अछूत है, न अस्पृश्य है। अतः जाति कुल के आधार पर गोत्र मानना गोत्र कर्म नहीं है।
गोत्र कर्म
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