Book Title: Bandhtattva
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 296
________________ निरन्तर बने रहना उपभोग है। इन गुणों को बनाये रखना, नष्ट न होने देना वीर्य है। इन सब गुणों से विमुख करता है विषय-सुखों का प्रलोभन । कहा भी है- लोहो सव्वविणासणो अर्थात् लोभ सब गुणों का नाश करने वाला है। विषय सुख के प्रलोभन से ही दूसरों से भोग सामग्री पाने की इच्छा पैदा होती है जिससे औदार्य गुण से विमुखता होती है, जो दानान्तराय है। सुख के प्रलोभन से ही भोग्य वस्तुओं को प्राप्त करने की कामना पैदा होती है, जिससे अभाव का अनुभव होता है, जो लाभान्तराय का उदय है। विषय-सुख के भोग से ही विकारों की उत्पत्ति होती है निर्विकारता-निर्दोषता के, स्वस्थता के वास्तविक सुख से वंचित करती है, यह भोगान्तराय का उदय है। भोगों में निरन्तर रहना जो निज स्वाभाविक-वास्तविक सुख के निरन्तर उपभोग से वंचित करता है, उपभोगान्तराय का उदय है। विषय-सुखों की प्राप्ति में सामर्थ्य का व्यय करना विषय-सुखों को, विकारों को त्यागने के सामर्थ्य से वंचित होना है, यह वीर्यान्तराय है। विषय-सुख के प्रलोभन से उत्पन्न ये पांचों बातें बहिर्मुखी बनाती हैं, इनकी उत्पत्ति, अपूर्ति और पूर्ति से मिलने वाले सुख में पराधीनता, जड़ता, विकार आदि विभाव रहते हैं। यह स्वभाव से वंचित तथा विमुख होना है, इससे आत्म-गुणों का घात होता है। इन दोषों में जितने अंशों में कमी होती जाती है उतने ही अंशों में उदारता, निर्लोभता, ऋजुता-मृदुता, निर्विकारता, निर्दोषता, माधुर्य का आनन्द एवं त्याग की सामर्थ्य आती जाती है। यही इन पांचों का क्षयोपशम है। विषय-सुखों का भोग-उपभोग निज के वास्तविक सच्चे सुख का घातक है। अत: विषयों के उपभोग के सुखों को जो कि सुखाभास हैं, अतंराय कर्म के क्षयोपशम से मानना भयंकर भूल है। यह विभाव को स्वभाव, दोष को गुण तथा पाप को पुण्य व धर्म मानना है। जब विषय-भोग ही दोष हैं, तब भोगों की पूर्ति में सहायक सामग्री जो भोगी जीव के भोग के दोष- वृद्धि में निमित्त कारण है उसे दोषों के क्षयोपशम से मानना कथमपि उचित नहीं है। कृपणता दानान्तराय की, कामना की उत्पत्ति दरिद्रता (अभावग्रस्तता) या लाभान्तराय की, विषय भोगों- उपभोगों की गृद्धता भोगान्तराय व उपभोगान्तराय की, दोषवृद्धि की प्रवृत्ति वीर्यान्तराय की सूचक है। अन्तराय कर्म 217

Loading...

Page Navigation
1 ... 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318