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फल है, विषय-भोगजन्य सुख भोगना विकार है, विभाव है। विकार व विभाव भोगान्तराय पाप कर्म के क्षयोपशम का फल नहीं हो सकता। अतः विषय-भोग के सुख को एवं सुख की निमित्त वस्तुओं को भोगान्तराय कर्म के क्षयोपशम से मानना अथवा पुण्योदय से मानना भूल है।
उपर्युक्त तथ्य उपभोगान्तराय कर्म के विषय में भी समझना चाहिए । विस्तार के भय से यहाँ इसका विवेचन नहीं किया जा रहा है।
अन्य प्राणी से आदान की इच्छा होना, वस्तु के पाने की कामना होना, भोग-उपभोग की इच्छा होना, इन सबकी प्राप्ति का प्रयत्न करना- ये सब विकार हैं, विभाव हैं, चारित्र मोहनीय के उदय रूप हैं। अतः पाप हैं, औदयिक भाव हैं, दोष हैं। ये कर्म-बंध के, संसार-भ्रमण के हेतु हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो विषय भोग-उपभोग की इच्छा का उत्पन्न होना, उसकी पूर्ति का प्रयत्न करना, उसकी पूर्ति होना, अपूर्ति होना, पूर्ति में सुख का भास होना ये सब विकार हैं, विभाव हैं, दोष व पाप के ही विभिन्न रूप हैं। विभाव व विकार में कमी होना, क्षायोपशमिक भाव है। क्षायोपशमिक भाव की अवस्था में विकार, दोष व पाप का आंशिक क्षय और आंशिक उदय रहता है। इसमें जितने अंशों में पाप का, विकार का, विभाव का क्षय है उतने ही अंशों में गण व स्वभाव प्रकट होता है। यह विकारों का, पापों का आंशिक क्षय व उपशम ही क्षयोपशम भाव कहलाता है। क्षयोपशम भाव से आत्मिक गुण प्रकट होते हैं, अतः यह मोक्ष का हेतु कहा गया है। क्षयोपशमभाव दोष का द्योतक नहीं है, अतः कर्म-बंध का हेतु नहीं है। क्षयोपशम भाव की अवस्था में जो पाप कर्मों का बंध होता है वह उस अवस्था में रहते हुए औदयिक भाव से होता है, क्षयोपशम भाव से नहीं होता है। अतः भोग-उपभोग आदि की पूर्ति व उससे होने वाले सुख को अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से मानना, औदयिक भाव को क्षायोपशमिक भाव मानना है, जो भयंकर भूल है। क्षयोपशम भाव से विषयों के भोग-उपभोग की इच्छा उत्पन्न नहीं होती है। भोग-उपभोग की इच्छा औदयिक भाव से होती है। अतः भोग-उपभोग से संबंधित इच्छा की उत्पत्ति, अपूर्ति, पूर्ति एवं उससे मिलने वाला सुख आदि सब प्रवृत्तियाँ, क्रियाएँ विभाव हैं, विकार हैं। इन सब अवस्थाओं में राग व पराधीनता रहती है, पराश्रय रहता है। राग, पराधीनता व पराश्रयता पाप है। इन्हें अन्तराय
अन्तराय कर्म
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