Book Title: Bandhtattva
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 298
________________ निजानुभूति के नित्य रस का घात करती है, यह उपभोगान्तराय है। मोह जनित वासना या कामना की पूर्ति में पराधीनता है। पराधीनता का अनुभव ही वीर्यान्तराय का उदय है। इस प्रकार अन्तराय कर्म के पांचों प्रकार मोह से ही संबंधित हैं। जब तक मोह है तब तक ही ये हैं। अतः मोह का क्षय होते ही अन्तर्मुहूर्त में ये सभी क्षय हो जाते हैं। जब भी ये पांचों प्रकृतियाँ क्षय होती हैं, एक साथ क्षय होती हैं। कारण कि इन पांचों प्रकृतियों की उत्पत्ति का मूल मोह ही है। अतः जब मोह कर्म का उन्मूलन होता है, तब अन्तराय कर्म की इन पांचों प्रकृतियों का उन्मूलन हो जाता है। स्वार्थपरता, कामना, ममता (तादात्म्य) आदि मोह के सब रूप परस्पर में ओत-प्रोत हैं, अनुस्यूत हैं। अतः इनसे होने वाला बंध, उदय, उदीरणा, क्षय एक साथ ही होता है। स्वार्थपरता से दानान्तराय का, कामना से लाभान्तराय का, ममता (आसक्ति) से भोगान्तराय का, तादात्म्य अहंभाव से उपभोगान्तराय का एवं पराधीनता से वीर्यान्तराय का सम्बन्ध है। इसके विपरीत निस्वार्थपरता से, उदारता से, दानान्तराय का क्षयोपशम व क्षय, निष्काम होने से लाभान्तराय का क्षयोपशम व क्षय, निर्ममता से भोगान्तराय का तथा निरभिमानता से उपभोगान्तराय का क्षयोपशम व क्षय, परिग्रह के त्याग से वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम व क्षय होता है। इन प्रकृतियों के क्षयोपशम से दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य की आंशिक उपलब्धि होती है। इनके क्षय से दान-लाभादि पांचों लब्धियां अनन्त हो जाती हैं अथवा संक्षेप में कहें तो स्वार्थपरता से, दानान्तराय का, कामना से लाभान्तराय का, ममता से भोगान्तराय का, आसक्ति–अहंभाव से उपभोगान्तराय का, और कर्तृत्व भाव से वीर्यान्तराय का आस्रव व बंध होता है और इन पांचों दोषों में जितनी कमी आती है उतनी ही दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य की उपलब्धि हो जाती है। स्वार्थपरता, कामना आदि पांचों दोषों के पूर्ण त्याग से दानान्तराय आदि पाँचों अन्तराय के क्षय से दान, लाभ आदि पाँचों उपलब्धियाँ असीम एवं अनन्त हो जाती हैं। याचना, खेत-वास्तु आदि परिग्रह, विषय-भोग, कर्तृत्वभाव, उपभोग आदि आत्मा के गुण नहीं हैं, अपितु आत्मा के दोष हैं। दोष को गुण समझना अज्ञान है, भ्रान्ति है। विषयसुख का भोग विकार है, मोह है। यह विषय सुख ही वास्तविक अक्षय, अव्याबाध व अनन्त आत्मिक सुख से अन्तराय कर्म 219

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