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तथा भोग करने की इच्छा कम होगी। ये इच्छाएँ जितनी कम होंगी उतना ही अभाव का कम अनुभव होगा। अतः अभाव का कम अनुभव होना अन्तराय में न्यूनता आना है- अन्तराय का क्षयोपशम होना है।
इसी प्रकार अपने निज ज्ञान, अक्षर ज्ञान, शाश्वत, सनातन, अपरिवर्तनशील ज्ञान (यही वस्तुतः जीव का स्वभाव रूप ज्ञान है) का आदर करने से–तदनुरूप आचरण करने से, ज्ञान के प्रभाव से स्वतः मोह घटता है। मोह घटने से दर्शन गुण का आदर होता है, निर्विकल्पता आती है। जिससे मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है। चित्त शान्त होने से विचार-विवेक- सत्य–तथ्य प्रकट होता है। अर्थात् ज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है।
___ आशय यह है कि इन चारों कर्मों में से किसी की भी स्थिति व अनुभाग घटने से शेष तीनों कर्मों की भी स्थिति एवं अनुभाग घटते हैं, किसी एक की स्थिति व अनुभाग बढ़ता है तो चारों कर्मों का बढ़ता है। वीतराग होने पर चारों का क्षय हो जाता है। इन चारों कर्मों में प्रधान मोहनीय कर्म है। मोह के कारण ही ज्ञान-दर्शन पर आवरण आता है। साधक मोह को कम करके अथवा दर्शन का आदर करके अथवा ज्ञान का आदर करके शेष अन्य कर्मों की स्थिति व अनुभाग को कम कर सकता है। अन्तराय कर्म इन तीनों कर्मों के फल रूप में है। अतः उसकी कमी अपने-आप में संभव नहीं है। मोह की कमी होने पर ही उसमें कभी संभव है। पहले अन्तराय कर्म में कमी नहीं हो सकती। साधक ज्ञान का आदर करने में, दर्शन का आदर करने में तथा मोह की कमी करने में, स्वाधीन व समर्थ है और इन तीनों में से किसी से भी प्रारम्भ कर सकता है। परन्तु अन्तराय कर्म मोह पर निर्भर होने से मोह में कमी होने से ही अन्तराय कर्म का क्षयोपशम सम्भव है।
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अन्तराय कर्म
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