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भोग्य सामग्री का सम्बन्ध अन्तराय कर्म से नहीं है। अन्तराय कर्म घाती कर्म है। इसका शरीर से भी सम्बन्ध नहीं है। शरीर का सम्बन्ध नाम कर्म से है। जिस अन्तराय कर्म का सम्बन्ध शरीर से, इन्द्रियों तक से नहीं है, उसका सम्बन्ध बाह्य भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति-अप्राप्ति से होना कैसे संभव है? कदापि नहीं।
भोगेच्छा का उत्पन्न होना और उसकी पूर्ति नहीं होने से उत्पन्न होने वाला दुःख अन्तराय कर्म का उदय है। यदि भोग की इच्छा ही उत्पन्न नहीं हो तो भोगेच्छा की अपूर्ति जन्य अभाव के अनुभव का दुःख नहीं सकता अर्थात् भोगान्तराय कर्म का उदय नहीं हो सकता। अतः भोगों की इच्छाओं में जितनी कमी होती जाती है उतनी ही भोगों के अपूर्ति के दुःख की निवृत्ति होती जाती है। भोगान्तराय कर्म के उदय में कमी होती जाती है, यही भोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम है। जिस जीव को जिन-जिन वस्तुओं को पाने की, भोग-उपभोग की इच्छा नहीं है, उस जीव के उन-उन वस्तुओं का अभाव नहीं होता है। अतः उस जीव के उन वस्तुओं के न मिलने का कारण अन्तराय कर्म का उदय नहीं है।
भोगेच्छा की पूर्ति होना भोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है। क्योंकि किसी की भी सभी इच्छाएँ कभी भी पूरी नहीं होती हैं। अतः इच्छाओं की पूर्ति से किसी को कभी भी तृप्ति या संतुष्टि नहीं होती है तथा प्रत्येक इच्छा की पूर्ति का सुख (सुखाभास) अनेक नवीन इच्छाओं को उत्पन्न करता है। इस प्रकार इच्छाओं की उत्पत्ति, अपूर्ति, पूर्ति, पुनः नवीन इच्छाओं की उत्पत्ति होने रूप अन्तराय कर्म का यह चक्र या क्रम अनवरत चलता रहता है। इस चक्र के चक्कर में फंस कर प्राणी अनन्तकाल से भव भ्रमण कर रहा है। अतः भोगेच्छा की पूर्ति होना अन्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है, अपितु इच्छाओं में कमी होना भोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम है और भोगेच्छाओं की पूर्ण निवृत्ति, त्याग व अभाव हो जाना भोगान्तराय कर्म का क्षय है। विषय-भोग व भोग्य सामग्री की प्राप्ति से अन्तराय कर्म के क्षयोपशम व क्षय का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।
भोगान्तराय कर्म के क्षयोपशम से आंशिक रूप में एवं क्षय से पूर्ण रूप में निजस्वरूप की रसानुभूति-सुखानुभति होती है इसी सुखानुभूति का रसास्वादन करना-भोग करना भोगान्तराय कर्म के क्षयोपशम व क्षय का
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अन्तराय कर्म